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________________ आराधनासमुच्चयम् ७३०६ है। हाथ जोड़कर प्रार्थना की - "हे देवराज ! हमारे अपराधों को क्षमा करो।" तब शासनदेवता ने प्रत्यक्ष होकर कहा - "इस सती को कष्ट देने का फल आपको मिल चुका है। आप इस सती से क्षमायाचना करें।" वहाँ से निकलकर अनंतमती जिनालय पहुंदी और पट्पशी मार्गिका के प्राप्त धर्मसाधना करती हुई रहने लगी। अनंतमती के हरे जाने पर प्रियदत्त विह्वल हो उठा। काफी प्रयत्न करने पर भी जब अनंतमती के समाचार नहीं मिले तो वह मन शांत करने के लिए तीर्थयात्रा करने चल पड़ा। चलते-चलते अयोध्या नगरी में जा पहुंचा जहाँ उसका साला जिनदत्त रहता था। रात्रि दुख-वार्तालाप से बीती। भानजी के वियोग की वार्ता से जिनदत्त का मन भी दुखित हुआ, परन्तु क्या कर सकता था। अनंतमती श्रावकों के घर भोजन करती और उनके कुछ कार्यों में मदद कर जिनमंदिर में चली जाती। आज भी वह जिनदत्त के घर चौक पूर भोजन कर मंदिर में चली गई। प्रियदत्त जिनमंदिर में पूजन कर घर आया। आते ही उसकी दृष्टि चौक पर पड़ी। देखते ही उसे अनंतमती का स्मरण हो आया। झर-झर आँखों से पानी निकल पड़ा। सजल नेत्र और अवरुद्ध कण्ठ से बोला - "जिसने यह चौक पूरा है, क्या मुझ अभागे को उसके दर्शन होंगे।" जिनदत्त जिनमंदिर में गया और अनंतमती को अपने घर ले आया। पिता-पुत्री का मिलन एक अनूठा हर्षोल्लास था। सुख-दुःख मिश्रित आँसुओं से सेठ के कपोल भीग गये। जिनदत्त को भी अपनी भानजी के मिलने का अपार हर्ष हुआ और इतने दिन नहीं पहिवान पाने का अफसोस भी। पिता ने पुत्री को घर चलने का आग्रह किया, परन्तु अनंतमती ने घर जाना स्वीकार नहीं किया और पिता के देखते-देखते अपने नीलमणि के समान काले केशों को उसने हाथ से उखाड़ कर फेंक दिया और श्वेत साटिका धारण कर पद्मश्री आर्यिका के पास दीक्षा ग्रहण कर मुक्ति-पथगामिनी बन गई। अन्त में, स्त्रीलिंग छेद कर सहस्रार स्वर्ग में देव हुई। कितने कष्ट आने पर तथा सांसारिक भोगों का प्रलोभन मिलने पर भी अनंतमती अपने व्रत से च्युत नहीं हुई। ठीक ही है, जिसके हृदय में सम्यग्दर्शन रूपी चिन्तामणि है, काय में व्रत रूपी कल्पवृक्ष है, वचन में सत्यरूपी कामधेनु है, उसे अन्य सांसारिक भोगों में रुचि कैसे हो सकती है ! भोग कर्माधीन हैं, अन्त सहित हैं, दुःखों से मिश्रित हैं और पाप के बीजभूत सीता संसार की असारता को जानकर दशरथ ने संसार से विरक्त हो जिनेश्वरी दीक्षा ग्रहण करने का विचार किया तथा मंत्रीगण को बुलाकर आदेश दिया कि राम के राज्याभिषेक की तैयारी करें। राम के राज्याभिषेक और पिता के तपोवन जाने का समाचार सुन भरत दीक्षा लेने के लिए तत्पर हुआ। पति और
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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