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________________ आराधनासमुच्चयम् . ३०७ पुत्र के वियोग के दुःख से खिन्न हुई कैकेयी ने राजा दशरथ के पास जाकर हाथ जोड़ प्रार्थना की - "हे पतिदेव, आपकी धरोहर में मेरे पास वर पड़ा है। उसकी इस समय याचना करती हूँ। आशा है, आप उसकी पूर्ति करेंगे।" दशरथ ने कहा - "प्रिये ! माँगो, क्या माँगती हो ?" राजा की आज्ञा पाकर कैकेयी ने कहा - "नाथ ! आपके गृहवास छोड़कर चले जाने पर भरत भी मुनिपद स्वीकार करेगा। आप जानते हैं कि रकी नीशा ती ही करते हैं - AE और ति। स्वामिन् ! पिता तो स्वर्गलोक सिधार गये। पति और पुत्र दीक्षा ले रहे हैं। आप ही बताइये कि मुझ अबला का सहारा कौन है। अतः हे नाथ ! मेरे पुत्र को राज्य प्रदान कीजिये।" तब दशरथ ने कहा - "इसमें लज्जा की बात क्या है ! जैसा तुम चाहती हो वैसा ही होगा।" उसी समय दशरथ ने राम को बुलाकर खिन्नचित्त से कहा - "हे वत्स ! कला की पारगामिनी, चतुर कैकेयी ने एक बार युद्ध में सारथी का काम कर मेरी रक्षा की थी। उस समय मैंने सभी के समक्ष इसे वर माँगने के लिए कहा था, सो आज यह अपने पुत्र के लिए राज्य माँग रही है ! यदि बड़े पुत्र को राज्य देता हूँ तो मेरी प्रतिज्ञा भंग होती है और यदि छोटे पुत्र को राज्य देता हूँ तो मर्यादा नष्ट होती है। क्योंकि बड़े पुत्र के रहते हुए छोटे पुत्र को राज्य देना मर्यादा का उल्लंघन करना है तथा भरत को राज्य देने पर परम तेज को धारण करने वाले तुम लक्ष्मण के साथ कहाँ जाओगे, यह मैं नहीं जानता। तुम पंडित हो अत: बताओ इस दुःखपूर्ण स्थिति में अब मैं क्या करूँ ?" प्रसन्नमन राम पिता के चरणों में दृष्टि लगाये हुए विनयपूर्वक निवेदन करते हैं - "पिताजी ! मेरी चिन्ता छोड़िये । यदि आपकी अपकीर्ति हो तो मुझे इन्द्र की लक्ष्मी से भी क्या प्रयोजन ? जो पिता को पवित्र करे और शोक से उनको मुक्त करे, पुत्र का यही पुत्रपना है।" इतना कहकर रामचन्द्र पिता को नमस्कार कर वहाँ से चले गए। उसी क्षण दशरथ मूर्छा को प्राप्त हो गये। अपराजिता (कौशल्या) के महल में जाकर राम ने अपनी माता को सारी वार्ता कहीं। विह्वल हुई माता को समझाकर सीता के पास गये। कितनी बार समझाने पर भी सीता ने उनकी एक नहीं सुनी और चल पड़ी छाया के समान उनके पीछे-पीछे। भ्रातृप्रेम से लक्ष्मण भी महल से निकलकर भ्राता और भावज के अनुगामी बने। जंगल-नदी-पर्वतों का उल्लंघन करते-करते सिंहोदर का मान मर्दन कर, वज्रकर्ण की रक्षा करते हुए, भरत के शत्रुओं को पराजित कर, भरत के राज्य की रक्षा करते तथा वनमाला, कल्याणमाला आदि के साथ विवाह कर सांसारिक सुखों का अनुभव करते हुए वंशस्थल गिरि पर जाकर कुलभूषण, देशभूषण मुनि का उपसर्ग दूर किया।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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