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________________ आराधनासमुच्चयम् - ३०४ (२) अनन्तमती अष्टालिका पर्व आया। प्रियदत्त सेठ ने धर्मकीर्ति मुनिराज के चरण-सान्निध्य में आठ दिन के लिए ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया, साथ में उसने प्रिय पुत्री अनंतमती को भी विनोदवश ब्रह्मचर्य व्रत दिला दिया। उक्त घटना को घटे वर्ष बीत गये, अब अनंतमती में यौवन का संचार हो चला। उसके अंग-प्रत्यंग विकसित हो उठे। उसका सम्पूर्ण शरीर असाधारण सौन्दर्य की प्रतिमा के समान निखर उठा। परन्तु उसका मानस वैराग्य रंग से रंगा हुआ था। वह कभी-कभी अतिशय गम्भीर प्रतीत होती, मानों संसार के दुःखदावानल से पार होने की चिंता में हो। इठलाता हुआ यौवन भी उसे भोगों में नहीं फंसा सका | उसकी वृत्तियाँ वस्तुतः आत्माभिमुखी थीं। जब माता-पिता ने उसके विवाह करने का आयोजन किया तो उसने इन्कार कर दिया और कहा - "पिताजी ! मैंने देव, शास्त्र, गुरु और माता-पिता को साक्षीपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रत लिया है तब विवाह के आयोजन से क्या प्रयोजन है।" अनंतमती के व्रत की दृढ़ता के कारण माता-पिता को विवाह का आयोजन समेटना पड़ा। अनंतमती ध्यान, स्वाध्याय में लीन रहकर आत्मशक्ति का विकास करने लगी। एक दिन कामी कुण्डलमति विद्याधर की दृष्टि अनंतमती पर पड़ी। दृष्टि पड़ते ही उसका हृदय कामवेदना से व्यथित हो गया और उसका प्रतिकार करने के लिए उसने अनंतमती को उठाया और अपने विमान में बिठाकर चलता बना। थोड़ी ही दूर गया होगा कि उसे सामने आता हुआ अपनी स्त्री का विमान दिखाई दिया। पाप का घड़ा फूटता देखकर उसने अनंतमती को पर्णलघुनामकविद्या के सहारे भयंकर अटवी में छोड़ दिया। एक विपत्ति से छूटते ही दूसरी विपत्ति ने अनंतमती को घेर लिया। विद्याधर के हाथों से छूटी, परन्तु उसके पापकर्म ने भील राजा के हाथ में पहुंचा दिया। भील राजा ने प्रथम तो अनंतमती को सांसारिक सुखों का प्रलोभन देकर उसे अपने वश में करना चाहा, परन्तु जब देखा कि यह आँख उघाड़ करके भी मेरी तरफ नहीं देख रही है, तो अपने बाहुपाश से उसको पकड़ना चाहा, परन्तु सती के व्रत के प्रभाव से वनदेवता ने आकर भील राजा के शरीर में अग्नि लगा दी। अग्नि की ज्वाला से पीड़ित होकर भील राजा ने सुन्दरी से क्षमायाचना की। देवता का कोप शांत हुआ तो अनंतमती ने सोचा, 'अब मैं अपने माता - पिता के पास पहुँच जाऊँगी। परन्तु विधाता को यह मंजूर नहीं था। प्रात:काल होते ही देवता के भय से भयभीत भीलराज ने अनन्तमती को एक सेठ के सुपुर्द कर कहा, “इस अनुपम सुन्दरी को इसके घर पहुंचा देना।" अनंतमती के अनुपम रूप को देखकर सेठ का मन मयूर नाच उठा। वह सोचने लगा, "मेरे पुण्योदय से यह स्त्रीरल अनायास मेरे हाथ लग गया। अब यह मेरे पंजे से छूटकर नहीं जा सकती"। वह पापी अनंतमती से कहने लगा, "महाभाग्ये ! तेरे पुण्य ने एक पापी के हाथ से छुड़ा कर पुण्य पुरुष के हाथ
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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