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________________ आराधनासमुच्चयम् ३०३ तथा उसकी विधि अंजन चोर को बतला दी। “जिनदत्त के वचन असत्य नहीं हो सकते। इस मंत्र का प्रभाव अचिंत्य है।" ऐसी दृढ़ श्रद्धा के साथ निःशंक होकर अंजन ने एक ही झटके में सारी रस्सियाँ काट दी। जब वह नीचे गिरने को ही था कि इसी बीच आकाश-गामिनी विद्या ने आकर उसे आकाश में अधर झेल लिया। उस विद्या के प्रभाव से अंजन चोर सुमेरु पर्वत स्थित जिनमंदिरों की वन्दना करता हुआ, नन्दन वन में पहुँचा जहाँ जिनदत्त पूजा कर रहा था। उसने जिनदत्त को नमस्कार कर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की और तत्रस्थ चारण ऋद्धिधारी मुनिराज के चरण-कमलों में नमस्कार कर जिनदीक्षा ग्रहण की और घोर तपश्चरण करके घातिया कर्मों का नाश कर केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्ति-पति बन गया। यह है नि:शंकित गुण की महिमा ! जिनवचनों पर दृढ़ विश्वास से ही सम्यग्दर्शन ज्योति जगमगा उठती है। सांसारिक भोगों की वांछा नहीं करना, संसार के भोगों के स्वरूप का चिंतन कर उनसे विरक्त होना नि:कांक्षित अंग है। जब अन्त:करण में सम्यग्दर्शन की ज्योति प्रकाशमान होती है तो अनादिकालीन अंधकार सहसा विलीन हो जाता है और समग्र तत्त्व अपने वास्तविक रूप में उद्भासित होने लगते हैं। तभी आत्मा के प्रति प्रगाढ़ रुचि का आविर्भाव होता है और सांसारिक भोग नीरस प्रतीत होने लगते हैं। वह प्राणी किसी प्रलोभन में पड़कर पर-मत की अथवा सांसारिक सुखों की अभिलाषा नहीं करता, अपितु उन आकांक्षाओं का त्याग कर निःकांक्षित गुणधारी बनता है। जो सांसारिक सुखों के बदले में सम्यक्त्व बेच देता है, वह छाछ के बदले में माणिक्य को बेच देने वाले मनुष्य के समान अपने को ठगता है। इंद्रियजन्य सुख वास्तविक सुख नहीं, तृष्णा की वृद्धि का कारण होने से दुःख रूप ही हैं। ये भोग भुजंग से भी अधिक भयावह हैं क्योंकि भुजंग से डसा हुआ प्राणी एक ही बार मरता है जबकि भोग रूपी भुजंग से डसा हुआ प्राणी अनंत बार मृत्यु को प्राप्त होता है। ऐसा विचार करने वाले के हृदय में सांसारिक भोगों से अरुचि हो जाती है। अभिलाषा तीन प्रकार की होती है- इहलोक संबंधी, परलोक संबंधी और कुधर्म संबंधी। इस लोक में चक्रवर्ती, बलदेव, धनाढ्य अथवा अनेक प्रकार के वैभव प्राप्त होने की वांछा करना इह लोक संबंधी अभिलाषा है। परभव में इन्द्र - प्रतीन्द्र आदि पदप्राप्ति की बांछा करना परलोक संबंधी अभिलाषा है। सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिए कुधर्म की वांछा करना कुधर्माभिलाषा है। ये तीनों प्रकार की अभिलाषाएँ सम्यग्दर्शन की घातक हैं। इसलिए सम्यग्दृष्टि सांसारिक भोगों के लिए तप का अनुष्ठान नहीं करता, अपितु कर्मनिर्जरा के लिए करता है। अत: नि:कांक्षित अंग का धारी होता है। सांसारिक वैभव के प्रलोभन से वह कभी अपने पद से च्युत नहीं होता। जैसे अनन्तमती, सुतारा, सीता आदि सन्नारियों का मन विचलित नहीं हुआ।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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