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आराधनासमुख्ययम् ३०२
आत्मविश्वास से विचलित नहीं कर सकती। अंजन चोर के समान जिसका अडिग विश्वास है और निर्भयता जिसके हृदय में कूट-कूट कर भरी रहती है, उसके यह अंग होता है।
आठ अंगों में प्रसिद्ध होने वालों की कथाएँ
(१) अंजन चोर राजा अरमन्थि का पुत्र ललितांग पूर्वोपार्जित कर्मोदय के कारण कुसंगति में पड़कर सप्त व्यसनी चोर बन गया था। औषधि-विज्ञानवेत्ता ने ऐसा अंजन बनाया कि जिसको आँख में आँजने से आँजने वाला किसी को नहीं दिखता, परन्तु उसको सबकुछ दिखता था। राजकुमार चोरी-कला में इतना निपुण हो गया कि लोगों के देखते हुए उनके सामने से वस्तुओं का अपहरण कर लेता था अत: लोगों ने उसे अंजन चोर नाम से पुकारना प्रारंभ कर दिया।
____ अंजन चोर का प्रेम राजगृही नगरी की प्रधान वेश्या मागेकांचना से हो गया था। आज भने प्रजापाल की महारानी कनकावती के गले में ज्योतिप्रभ नामक रत्नहार देखा है। यदि इस समय वह हार लाकर मुझे दोगे तो तुम मेरे पति हो, नहीं तो हमारे-तुम्हारे प्रेम का अन्त है।" वेश्या ने स्त्रियोचित भाव भंगी प्रदर्शित करते हुए कहा । अंजन चोर को वेश्या का ताना सहन नहीं हुआ। वह आँखों में अंजन लगाकर हार चुराने के लिए चल पड़ा। अपने कार्य में चतुर अंजन ने ज्योतिप्रभहार को अपने हाथ में ले लिया, किन्तु हार में लगी हुई मणियों का प्रकाश बहुत तेज था, जिससे वह हार को छिपा न सका। अतः सशस्त्र सिपाहियों ने उसके पदचालन का लक्ष्य करके हल्ला करते हुए उसका पीछा किया। निकल भागने में असमर्थ अंजन हार को छोड़कर भागता हुआ श्मशान भूमि में आया, जहाँ पर एक वृक्ष की शाखा पर १०८ रस्सियों का एक छींका लटक रहा था। नीचे चमचमाती तलवार आदि तीक्ष्ण शस्त्र गड़े थे। टिमटिमाते दीपक के प्रकाश में दिख रही थी चारों तरफ भीषण अटवी। एक मानव कभी छींके पर चढ़ता और कभी नीचे गड़े हुए शस्त्रों से भयातुर हो नीचे उतर आता।
“प्रलयकाल के अन्धकार से व्याप्त इस काल में ऐसा दुष्कर कर्म करने वाले महासाहसी पुरुष तुम कौन हो ?' अञ्जन चोर ने पूछा।
__वह बोला - "मेरा नाम वारिषेण है। मैं आकाशगामिनी विद्या सिद्ध करने आया हूँ। जिनदत्त सेठ ने कहा था कि नीचे तीक्ष्ण शस्त्र रखकर ऊपर १०८ रस्सी के छींके पर बैठकर इस मंत्र का जप करते हुए एक - एक रस्सी काटना, अन्तिम रस्सी कटते ही तुझे आकाशगामिनी विद्या सिद्ध हो जायेगी। परन्तु भाई मुझे विश्वास नहीं हो रहा है, मन शंकित है, कहीं विद्या-सिद्धि के लोभ में प्राणों से हाथ न धोना पड़े।" अंजन चोर उसकी बातों को सुनकर मन्द मुस्कान के साथ बोला - "तुम डरपोक हो। तुम्हें मंत्र पर विश्वास नहीं है, मुझे इस विद्या की साधना करने दो।" वारिषेण प्राणों के मोह में पड़कर घबरा गया और उसने मंत्र