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आराधनासमुच्चयम् ३०१
है। २५ दोषरहित, आठ अंग सहित निजात्मरूप आत्मानुभव जिस प्रकार सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में कारण है उसी प्रकार बाह्य खान-पान की शुद्धि भी सम्यग्दर्शन की विशुद्धि में कारण है। क्योंकि बाह्य खान-पान से भी सम्यग्दर्शन मलिन होता है।
भावप्राभृत की टीका में श्रुतसागर जी ने लिखा है कि सम्यग्दर्शन को आठ गुणों सहित होना चाहिए तथा चर्म की वस्तु में रखे हुए जल, तेल, घी आदि वस्तुओं के खाने का त्याग करना, पाँच उदम्बर फल, मद्य, मांस, मधु के खान का त्याग कर अष्ट मूलगुण धारण करना, जमीकंदमूल के खाने का त्याग करना, तरबूज, पाँच प्रकार के पुष्प, आचार, कौसुभ पत्र और पत्ते की शाक-भाजी का त्याग करना चाहिए। सम्यग्दर्शन को निर्मल करने के लिए मांसाहारी के हाथ का भोजन-पानी ग्रहण नहीं करना चाहिए तथा जिस बर्तन में मांसाहारी भोजन करता है, उस बर्तन में सम्यग्दृष्टि को भोजन नहीं करना चाहिए।
प्रथमानुयोग के पठन-मनन-चिंतन करने से बोधि-समाधि की प्राप्ति होती है, अत; अष्ट अंगों में प्रसिद्ध महापुरुषों का कथन भी सुनना परमावश्यक है। उनका उल्लेख यहाँ किया जा रहा है.
जिस प्रकार गुण के बिना गुणी नहीं रह सकता, उसी प्रकार निःशंकितादि गुणों के बिना सम्यग्दर्शन रूपी गुणी नहीं रहता । यही आठ गुण आगे चलकर आठ अंगों के रूप में प्रचलित हो गये। जैसे शरीर अपने अंगोपांग में समाहित है, उसी प्रकार सम्यग्दर्शन भी अपने अंगों में समाहित है। रत्नकरण्ड श्रावकाचार में समन्तभद्र स्वामी ने इन आठ अंगों का संक्षिप्त किन्तु हृदयग्राही वर्णन किया है।
पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में अमृतचंद्र स्वामी ने इनके लक्षण बतलाने के लिए आठ श्लोक लिखे
इन आठ अंगों की मान्यता सम्यग्दर्शन का पूर्ण विकास करने के लिए आवश्यक है। अंगों की आवश्यकता बतलाते हुए स्वामी समन्तभद्र ने लिखा है कि जिस प्रकार कम अक्षर वाला मंत्र विषवेदना को नष्ट करने में असमर्थ रहता है, उसी प्रकार कम अंगों वाला सम्यग्दर्शन संसार की संतति का छेद करने में समर्थ नहीं होता।
'तत्त्व यही है, इसी प्रकार है, अन्य नहीं, अन्य प्रकार नहीं,' ऐसी अडोल, अकंप तत्त्व-रुचि को निःशंकित अंग कहते हैं। सम्यम्दृष्टि निर्भीक एवं निःशंक होता है, क्योंकि सम्यग्दृष्टि समझता है कि सत् का विनाश और असत् का उत्पाद नहीं होता है, फिर भय किसका।
___ कषाय अथवा अज्ञान के कारण ही मिथ्याभाषण होता है। जो निष्कषाय, वीतराग और सर्वज्ञ होने के कारण पूर्ण ज्ञानी हैं, उनके वचन सत्य ही होते हैं। इस प्रकार वीतराग के वचन पर अडोल, अकंप श्रद्धान होना निःशंकित गुण है।
जिनधर्म पर जिसकी अविचल आस्था है, दानवी शक्ति भी उसे सत्य से, धर्म या अखंड