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आराधनासमुन्वयम् ०३००
सांसारिक ख्याति, पूजा, प्रतिष्ठा प्राप्त कर उन्मत्त हो जाना पूजामद है।
माता के परिवार यानी ननिहाल के लोगों के धनाढ्य होने पर घमण्ड करना जातिमद है | पिता के परिवार के लोगों के धनाढ्य आदि होने पर घमण्ड करना कुलमद है।
शारीरिक शक्ति का
करना उस है।
सांसारिक ऐश्वर्य प्राप्त कर उन्मत्त होना ऐश्वर्य मद या ऋद्धि मद है।
बहिरंग उपवास आदि तप करके घमण्ड को प्राप्त होना कि मैंने दस-दस उपवास किये हैं, मैं नीरस खाता हूँ, मेरे समान तपश्चरण करने वाला कोई नहीं है, इत्यादि भाव तयभद हैं।
शरीर के सौन्दर्य का घमण्ड करना रूपमद है।
ये आठ प्रकार के मद सम्यग्दर्शन के घातक हैं, अतः दोष हैं।
सम्यग्दर्शन की घातक तीन मूढ़ता है- लोकमूढ़ता, देवमूढ़ता और गुरुमूढ़ता।
वस्तु के स्वरूप का विचार न करके लौकिक जनों की देखादेखी करना लोकमूढ़ता है। जैसे लौकिक जनों को पूजते देखकर नदी आदि में स्नान करने में, उसकी पूजा में धर्म मानकर पूजा करना लोकमूढ़ता
है ।
रागद्वेष से मलिन देवताओं को आप्त मानकर सांसारिक भोगों की प्राप्ति के लिए उनको पूजना, उनका सत्कार करना देवमूढ़ता है।
पाखण्डी साधुओं की सेवा करना, उनका सत्कार करना, उनकी प्रशंसा करना गुरु / पाखण्ड
मूढ़ता है।
कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और उनके सेवकों का सत्कार- पूजा बहुमान करना ये षट् अनायतन सेवा है। अर्थात् कुगुरु, कुदेव, कुधर्म और उनके सेवक सम्यग्दर्शन के घातक होने से अनायतन हैं, मिथ्यादर्शन के आयतन हैं।
सम्यग्दर्शन के ये २५ दोष सम्यग्दर्शन को मलिन करने वाले हैं, अतः इन दोषों का मानसिक शुद्धिपूर्वक त्याग करना सम्यक्त्व की आराधना का उपाय है।
अस्ति नास्ति, भाव और अभाव आदि विरोधी धर्म एक साथ रहते हैं, अतः दुर्गुणों का त्याग करके सद्गुणों का निरंतर अभ्यास करना चाहिए। इस प्रकार दोषरहित, आठ गुण सहित सम्यग्दर्शन का पालन करना दर्शनविशुद्धि हैं।
जिनोपदिष्ट निर्ग्रथ मोक्षमार्ग में रुचि तथा निःशंकितादि आठ अंग सहित होना सो दर्शनविशुद्धि