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आराधनासमुच्चयम् १२९५
दर्शनमाराधयता ज्ञानं ह्याराधितं भवेनियमात् ।
ज्ञानं त्वाराधयता भजनीयं दर्शनं विद्यात् ।।२२६॥ अन्वयार्थ - हि - निश्वय से। दर्शनं - दर्शन की। आराधयता - आराधना करने वाले के। ज्ञानं - ज्ञान । आराधितं - आराधना। नियमात् - नियम से। भवेत् - होती है। तु - परन्तु । ज्ञानं - ज्ञान । आराधयता - आराधना करने वाले के। दर्शनं - दर्शन ! भजनीयं - भजनीय है अर्थात् ज्ञान आराधना वाले के दर्शन आराधना हो भी सकती है और नहीं भी हो सकती है। विद्यात् - ऐसा समझना चाहिए।
अर्थ - जो मानव दर्शन की आराधना करता है, उसके ज्ञान आराधना अवश्य होती है अर्थात् सम्यग्दृष्टि, सम्यग्ज्ञान की आराधना अवश्य करता है, परन्तु जो ज्ञान की आराधना करता है, वह सम्यग्दर्शन का आराधक हो भी सकता है और नहीं भी हो सकता है। ऐसा एकान्त नियम है कि जो सम्यग्दर्शन की आराधना करता है वह सम्यग्ज्ञान की आराधना अवश्य करता है, क्योंकि सम्यग्दर्शन के होने पर सम्यग्ज्ञान अवश्य होता है, परन्तु जो ज्ञान की आराधना करता है, वह दर्शन की आराधना करे ही करे, ऐसा नियम नहीं है। क्योंकि मिथ्यादृष्टि भी द्रव्यश्रुत की आराधना कर सकता है।
सम्यग्दर्शनभाजा ज्ञानं भावात्मकं सदा हास्ति।
द्रव्यात्मकं च तस्मात् पूर्वार्थं कथितमाचार्यैः ॥२२७।। अन्वयार्थ - सम्यग्दर्शनभाजाः - सम्यादृष्टि के। हि- निश्चय से। भावात्मकं - भावात्मक । च - और। द्रव्यात्मकं - द्रव्यात्मक । ज्ञान - ज्ञान । सदा - हमेशा। अस्ति - होते हैं। तस्मात् - इसलिए। आचार्यैः - आचार्यों । पूर्वार्धं - ज्ञान के पूर्व दर्शन | कथितं - कहा है।
अर्थ - सम्यग्दृष्टि भव्यात्मा के द्रव्यात्मक और भावात्मक श्रुतज्ञान निरंतर रहता है, इसलिए आचार्यदेव ने सम्यग्दर्शन के पश्चात् ज्ञान आराधना कही है। अर्थात् सम्यग्दर्शन के अनन्तर ही सम्यग्ज्ञान होता है, इसलिए सम्यग्दर्शनाराधना के बाद ज्ञान आराधना कही है।
मिथ्यादृष्टौ च यतौ द्रव्यश्रुतमस्ति तत्समालोक्य।
शुद्धनयेनोक्तं तत्पश्चार्धं सूरिभिस्तु ततः ॥२२८|| अन्वयार्थ - च - और। मिथ्यादृष्टौ - मिथ्यादृष्टि । यतौ - मुनि में। द्रव्यश्रुतं - द्रव्यश्रुत । अस्ति - है। तत् - उसको। समालोक्य - देखकर । ततः - इसलिए। सूरिभिः .. आचार्यदेव ने। शुद्धनयेन - शुद्धनय की अपेक्षा । तत्पश्चार्धं - ज्ञानाराधना के पश्चात् दर्शनाराधना। उक्तं - कही है। तु - परन्तु।