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आराधनासमुच्चयम् २९४
चारित्र आराधना के आराधक का लक्षण देशविरतादिनष्टकषायान्ताः वर्धमानशुभलेश्याः ।
शीलगुणभूषितास्ते चारित्राराधका ज्ञेयाः॥२२४॥ अन्वयार्थ - देशविरतादिनष्टकषायान्तः - देशविरतादि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषायपर्यन्त वाले जीव । वर्धमान-शुभलेश्याः - वर्द्धमान है शुभ लेश्या जिन्होंके । शीलगुणभूषिताः - शीलगुणों से भूषित । ते - वे मानव महापुरुष। चारित्राराधका; - चारित्र आराधना के आराधक । ज्ञेयाः - जानने चाहिए।
अर्थ - चारित्र का प्रारंभ पंचम गुणस्थान से होता है, इसलिए पंचम गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय (१२वें गुणस्थान) पर्यन्त जीव चारित्र आराधना के आराधक कहलाते हैं।
जिन जीवों के कृष्ण, नील और कापोत लेश्या होती है, वे चारित्र का पालन नहीं कर सकते। अत: वर्धमान शुभलेश्या वाले ही चारित्र के आराधक कहे गये हैं। शीलगुण रूपी भूषणों के धारक महापुरुष ही चारित्र के आराधक हैं। इसलिए आचार्यदेव ने चारित्र आराधक के दो विशेषण दिये हैं, वर्धमानशुभलेश्या और शीलगुणों से विभूषित।
तप आराधक का लक्षण देशविरतादिनष्टकषायान्ताः स्वोचितोत्तमाचरणाः।
संशुद्धचित्तयुक्तास्तपसो हाराधका गम्याः॥२२५॥ अन्वयार्थ - स्वोचितोत्तमाचरणाः - स्वकीय गुणस्थानों में होने वाले उत्तम आचरण के धारक। संशुद्धचित्तयुक्ताः - संशुद्ध चित्त से युक्त । देशविरतादिनष्टकषायान्ताः - देशविरतादि से क्षीणकषाय तक के गुणस्थानवी जीव। हि - निश्चय से। तपसः - तप के। आराधकाः - आराधक । गम्या: - जानने चाहिए।
अर्थ - तप आराधना और चारित्र आराधना में कोई विशेष अन्तर नहीं है क्योंकि चारित्रधारी ही वास्तव में तपश्चरण कर सकते हैं। जिस प्रकार सम्यग्दर्शन के बिना ज्ञान आराधना नहीं है, उसी प्रकार चारित्र के बिना तपाराधना नहीं है।
तपाराधना का प्रारंभ देशविरत गुणस्थान में होता है और अंत क्षीणकषाय गुणस्थान में। अपने गुणस्थान के योग्य उत्तम आचरण करने वाले, अत्यन्त शुद्ध चित्त वाले, पंचम गुणस्थान से लेकर बारहवें गुणस्थान तक के जीव तप आराधना के आराधक होते हैं। यद्यपि षट्खण्डागम की तेरहवीं पुस्तक में तपोकर्म छठे गुणस्थान से कहा है परन्तु कुछ अंश में पंचम गुणस्थान में भी तपाराधना है क्योंकि इस गुणस्थान में भी इन्द्रियों और मन का किसी अंश में निरोध होता ही है। अन्यथा एकदेशव्रत रूप पंचम गुणस्थान नहीं हो सकता। इसलिए इस ग्रन्थ में पंचम गुणस्थान से तप आराधना का प्रारंभ माना है।