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________________ आराधनासमुच्चयम् * २९६ शुद्धनयाविज्ञानं मिथ्यादृष्टभधन्ति शानम्। तस्मान्मिथ्यादृष्टिमा॑नस्याराधको नैव ॥२२९।। अन्वयार्थ - मिथ्यादृष्टेः - मिथ्यादृष्टि का । शुद्धनयाविज्ञानं - शुद्धनय से होने वाला विज्ञान । अज्ञानं - अज्ञान ही। भवन्ति - होता है। तस्मात् - इसलिए। मिथ्यादृष्टिः - मिथ्यादृष्टि । ज्ञानस्य - ज्ञान का | आराधकः - आराधक । न एव - नहीं है। अर्थ - मिथ्यादृष्टि मुनिराज ग्यारह अंग के पाठी हो सकते हैं। अतः द्रव्यलिंगी मुनि द्रव्यश्रुत आराधक है, ऐसा जानकर कुछ आचार्यों ने शुद्ध नय की अपेक्षा प्रथम ज्ञान आराधना और पश्चात् दर्शन आराधना का कथन किया है, परन्तु शुद्धनय की अपेक्षा मिथ्यादृष्टि के जो विज्ञान कहा है, वह वास्तव में अज्ञान ही है। इसलिए मिथ्यादृष्टि ज्ञान का आराधक नहीं है। सम्यग्दर्शन की प्राप्ति देशनालब्धि पूर्वक ही होती है क्योंकि तत्त्वज्ञान के बिना तत्त्वार्थश्रद्धानपूर्वक सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता इसलिए पूर्व में ज्ञान होता है, फिर दर्शन होता है। ऐसा कथन किया जाता है, परन्तु तत्त्वश्रद्धान रहित जीवादि पदार्थों की जानकारी रूप जो ज्ञान है, वह ज्ञान समीचीन नहीं है, अपितु मिथ्या ही है इसलिए सम्यग्दर्शन के अनन्तर ही ज्ञान की आराधना होती है। संयममाराधयता तपः समाराधितं भवेनियमात् । आराधयता हि तपश्चारित्रं भवति भजनीयम् ।।२३०॥ अन्वयार्थ - संयम - संयम की। आराधयता - आराधना करने वाला। नियमात् - नियम से। तपः - तप का। समाराधितं - आराधक | भवेत् - होता है। हि - परन्तु । तप: - तप की। आराधयता - आराधना करने वाले के । चारित्रं - चारित्र । भजनीयं - भजनीय है। यस्माच्चारित्रवतस्तनुचेतोदर्परोधरूपतपः। संलक्ष्यते हि तस्मात् पूर्वाधं विद्भिरुपदिष्टम् ।।२३१॥ अन्वयार्थ - यस्मात् - क्योंकि । चारित्रवत: - चारित्रवान के । तनुचेतोदर्परोधरूपतपः - शरीर और मन के दर्प का रोध रूप तप । हि - निश्चय से। संलक्ष्यते - देखा जाता है। तस्मात् - इसलिए। विद्भिः - विद्वानों ने। पूर्वाध - तप के पूर्वार्ध में संयम आराधना का। उपदिष्टं - उपदेश दिया है। अर्थ - जो प्राणी संयम की आराधना करता है, वह मन और शरीर का निरोध करता ही है अर्थात् पंच इंद्रियों का और मन का निरोध करना तथा शरीर को कृश करना संयम है। इन्द्रियों एवं मन का संयमन करने के लिए तपश्चरण की आवश्यकता होती है। इसलिए संयम की (चारित्र) की आराधना करने वाले तप की आराधना अवश्य करते हैं, परन्तु तप की आराधना करने वाले के चारित्र की आराधना भजनीय
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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