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आराधनासमुच्चयम् - ४
सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र और तप रूप आराधनाओं का संकलन है इस ग्रन्थ में इसीलिए यह 'आराधना समुच्चय' है। ग्रन्थ की एक अन्य विशेषता है- तपाराधना के अन्तर्गत अन्तरङ्ग तप 'ध्यान' का वर्णन करते समय द्वादश अनुप्रेक्षाओं का संक्षिप्त किन्तु सारगभं वर्णन ।
चारों आराधनाओं का २१० पद्यों में शास्त्रोक्त समीचीन वर्णन करने के बाद ग्रन्थकर्ता ने ३० पद्यों में आराधना का स्वरूप, आराधकजन का स्वरूप, आराधना का उपाय और आराधना का फल इन चार विषयों की गम्भीर चर्चा कर ग्रन्थ की उपादेयता में वृद्धि की है। इस प्रकार ग्रन्थकार ने आराधना के माध्यम से निर्वाणप्राप्ति का सम्यक् मार्ग बताया है।
जैनाचार्यों ने 'आराधना' विषयक नाना कृतियों का प्रणयन किया है। इतिहासज्ञ डॉ. कस्तूर चन्द कासलीवाल लिखते हैं - "श्री वेलंकर ने अपने 'जिनरत्नकोश' में २७ से भी अधिक रचनाओं का उल्लेख किया है। इधर राजस्थान के जैन ग्रन्थ भण्डारों पर जो कार्य हुआ है और श्रीमहावीरजी क्षेत्र के साहित्य शोध विभाग की ओर से सूचियों के जो चार भाग प्रकाशित हुए हैं उनमें आराधना विषयक और भी कितनी ही रचनाओं का पता चला है। ये रचनायें देश के शास्त्रभण्डारों में अब तक उपलब्ध कृतियों में प्राकृत, संस्कृत एवं हिन्दी भाषा में निबद्ध हैं। कुछ प्रमुख रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं - १. आराधनासार - आचार्य देवसेन (प्राकृत ९ वीं शताब्दी), २. भगवती आराधना (शिवार्य, प्राकृत), ३. आराधनासार प्रबन्ध (प्रभाचन्द्र, संस्कृत), ४. आराधनासार वृत्ति (आशाधर, संस्कृत, १३ वीं शताब्दी), ५. आराधना प्रबन्ध (सोमसूरि, प्राकृत), ६. आराधना कुलक (अभयसूरि), ७. आराधना पताका (वीरभद्र सूरि), ८. आराधना प्रतिबोधसार (भट्टारक सकलकीर्ति - हिन्दी), ९. आराधना प्रतिबोधसार (विमलेन्द्र सूरि, हिन्दी), १०, आराधनासार (ब्र. जिनदास, हिन्दी), ११. आराधना कथाकोश (ब्रह्म नेमिदत्त, संस्कृत), १२. आराधना समुच्चय (रविचन्द्र मुनीन्द्र)
"इससे यह स्पष्ट है कि आराधना विषय जैन विद्वानों की दृष्टि में अत्यधिक महत्त्वपूर्ण रहा है और समय-समय पर उन्होंने विभिन्न भाषाओं में ग्रन्थों का निर्माण किया है।” (प्रस्तावना, आराधना समुच्चय, मौजमाबाद प्रकाशन ।)
अद्यावधि प्रकाशित आराधना विषयक ग्रन्थों में शिवार्य रचित भगवती आराधना ग्रन्थ सर्वोपरि है और अन्य ग्रन्थों के लिए आधारग्रन्थ है। दो वर्ष पूर्व पूज्य आर्यिका सुपार्श्वमती माताजी ने देवसेनाचार्य विरचित आराधनासार एवं इसकी रत्नकीर्तिदेव विरचित संस्कृत टीकर का अनुवाद किया था जो श्री दिगम्बर जैन मध्यलोक शोध संस्थान, सम्मेदशिखर जी से प्रकाशित हुआ है।
रचयिता श्री रवीन्द्र मुनीन्द्र के जीवन के सम्बन्ध में और उनकी अन्य कृतियों के सम्बन्ध में उनकी इस कृति से कुछ विशेष ज्ञात नहीं होता। बस, इतना ज्ञात होता है कि पनसोगे ग्राम में यह कृति रची गई। डॉ. ए. एन. उपाध्ये के अनुसार यह ग्राम कर्णाटक प्रदेश में स्थित है। यह तथ्य इस बात को दर्शाता है कि श्री रवीन्द्र मुनीन्द्र का कार्यक्षेत्र दक्षिण भारत रहा है। साक्ष्यों के अभाव में इनके समय के बारे में भी निश्चित नहीं कहा जा सकता। क्षुल्लक सिद्धसागर जी इन्हें १०वीं शताब्दी का स्वीकार करते हैं तो डॉ, कस्तूरचन्द्र