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卐 सम्पादकीय श्री रविचन्द्र मुनीन्द्र विरचित आराधनासमुच्चयं २५२ संस्कृत आर्या छन्दों में निबद्ध जैनधर्म की प्रमुख मान्यताओं को निदर्शित करने वाली एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कृति है। स्वयं कृतिकार के शब्दों में 'आराधना-समुच्चयं आगमसारं' है। निश्चय ही यह कृति जैनागम के सार को प्रस्तुत करती है। परन्तु यह 'रचितोऽयमखिलशास्त्रप्रवीण-विद्वन्मनोहारी' है यानी यह कृति अखिल शास्त्रों में प्रवीण जो विद्वान् हैं उनके मन को हरने वाली है। शायद यही कारण है कि अन्य स्वाध्यायियों के स्वाध्याय हेतु इस ग्रन्थ का उपयोग नहीं हो सका।
भारतीय ज्ञानपीठ से १९६७ में डॉ. आ. ने. उपाध्ये के सम्पादकत्व में यह प्रथम बार मूल रूप में प्रकाशित हुआ था। मात्र मूल संस्कृत में होने के कारण पाठकों को इसके स्वाध्याय का लाभ नहीं मिल सका। १९७० में क्षुल्लक सिद्धसागर जी महाराज के मूलानुगामी हिन्दी अनुवाद सहित यह कृति दिगम्बर जैन समाज मौजमाबाद-जयपुर (राज.) से प्रकाशित हुई थी। तभी स्वाध्याथियों को इस कृति के अन्तरंग का परिचय मिला। इस संस्करण के चौंतीस वर्षों बाद अब आगम के सार रूप यह कृति पूज्य आर्यिका सुपार्श्वभती माताजी की विस्तृत हिन्दी टीका सहित स्वाध्यायी पाठकों के कर-कमलों में अर्पित है। पूज्य माताजी की प्रामाणिक लेखनी ने इस कृति को सहज बोधगम्य बना दिया है, यह पूज्य माताजी का हम पर बड़ा उपकार है। दुर्बोध विषय को सहज ग्राह्य बनाने के लिए कहीं-कहीं प्रसंगवश विषय की आवृत्ति भी हुई है पर वह दोषरूप कहीं नहीं है।
ग्रन्थ का नाम है- आराधनासमुच्चय। समुच्चय का अभिप्राय है- समूह, राशि, कुछ वस्तुओं या बातों का एक जगह एकत्र होना (cumulation)। आराधना का सामान्य अर्थ है भक्ति करना, उपासना करना। जैन दर्शन का यह पारिभाषिक शब्द है। 'अनगारधर्मामुत' कार ने लिखा है
वृत्तिर्जातसुदृष्ट्यादेस्तदगतातिशयेषु वा ।
उद्योतादिषु सा तेषां भक्तिराराधनोच्यते ॥९८/१०५।। जिसके सम्यग्दर्शनादिक परिणाम उत्पन्न हो चुके हैं ऐसे पुरुष को उन सम्यग्दर्शनादिक में रहने वाले अतिशयों अथवा उद्योतादिक विशेषों में जो वृत्ति उसी को दर्शनादिक की भक्ति कहते हैं और इस भक्ति का नाम ही आराधना है। 'भगवती आराधना' में कहा है
उज्जोवणमुज्जवणं णिवाहणं साहणं च णिच्छरणं ।
दंसणणाणचरित्तं तवाणमाराहणा भणिया। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र व सम्यक्तप इन चारों का यथायोग्य रीति से उद्योतन करना, इनमें परिणति करना, इनको दृढ़ता पूर्वक धारण करना, इनके मन्द पड़ जाने पर पुन:पुनः जागृत करना और इनका आमरण पालन करना सो आराधना है।