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________________ आराधनासमुच्चयम्. २८८ उत्तम सत्य - अन्य जीवों को दुःखदायक, कठोर, अप्रिय, असत्य वचन नहीं बोलना; हित, मित, प्रिय वचन बोलना उत्तम सत्य है। उत्तम संयम - 'स' - भली प्रकार से (सम्यग्दर्शन सहित) यम - नियम का पालन करना संयम है। भाव और द्रव्य के भेद से संयम दो प्रकार का है। पाँचों इन्द्रियों और मन को बाह्य विषयों से रोकना भाव संयम है और पृथिवीकायादि छह काय के जीवों की रक्षा करना, उनकी विराधना नहीं करना द्रव्य संयम है। इन दोनों प्रकार के संयम का पालन करना उत्तम संयम धर्म है। उत्तम तप - तपाराधना में कथित १२ प्रकार के तपों का पालन करना, वा अपनी आत्मा में लीन रहना उत्तम तप धर्म है। उत्तम त्याग - उत्तम, मध्यम और जघन्य इन तीन प्रकार के पात्रों को आहार, औषध, ज्ञान और अभय के भेद रूप चार प्रकार का दान देना तथा निश्चय से राग-द्वेष का त्याग करना उत्तम त्याग धर्म है। आकिंचन्य धर्म - निज ज्ञान स्वरूप को छोड़कर मेरा कुछ भी नहीं है, मैं अकिंचन हूँ ऐसा विचार कर आन्तरिक दृढ़ता के साथ बाह्य में धन-धान्यादि दश प्रकार के परिग्रह का और कषाय मिथ्यात्वादि अभ्यन्तर परिग्रह का त्याग करना आकिंचन्य है। उत्तम ब्रह्मचर्य - ब्रह्म अर्थात् अपनी आत्मा में चर्या-रमण करना ब्रह्मचर्य है। बाह्य में स्त्रीमात्र के साथ रमण करने का मन, वचन, काय से त्याग कर स्वकीय आत्मा में लीन रहना उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म षट् आवश्यक और १२ तप का कथन पूर्व में किया है। सम्यक् प्रकार से मन, वचन और काय को वश में करना तीन गुप्ति है। इन दश धर्म, बारह तप, षट् आवश्यक, पाँच पंचाधार और तीन गुप्ति का पालन करना आचार्य परमेष्ठी के ३६ मूलगुण हैं। इस प्रकार ३६ मूलगुणों के धारी आचार्य परमेष्ठी होते हैं। जो चौदह विद्यास्थानों का पारंगत है, ग्यारह अंगधारी है अथवा आचारांग मात्र का धारी है अथवा तत्कालीन स्व-समय और पर-समय में पारंगत है, मेरु के समान निश्चल है, पृथिवी के समान सहनशील है। जिसने समुद्र के समान मल अर्थात् दोषों को बाहर फेंक दिया है और जो सात प्रकार के भय से रहित है, उसे आचार्य कहते हैं। प्रवचनरूपी समुद्र के जल के मध्य में स्नान करने से अर्थात् परमागम के परिपूर्ण अभ्यास और अनुभव से जिनकी बुद्धि निर्मल हो गई है, जो निर्दोष रीति से छह आवश्यकों का पालन करते हैं, जो मेरु
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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