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________________ आराधनासमुच्चयम् २ २८९ पर्वत के समान निष्कम्प हैं, जो शूरवीर हैं, जो सिंह के समान निर्भीक हैं, जो निर्दोष हैं, देश-कुल और जाति से शुद्ध हैं, सौम्यमूर्ति हैं, अन्तरंग और बहिरंग परिग्रह से रहित है, आकाश के सभान निलेप है, ऐस आचार्य परमेष्ठी होते हैं। जो संघ के संग्रह अर्थात् दीक्षा और अनुग्रह करने में कुशल हैं, जो सूत्र अर्थात् परमागम के अर्थ में विशारद हैं, जिनकी कीर्ति सब जगह फैल रही है, जो सारण अर्थात् आचरण, वारण अर्थात् निषेध और शोधन अर्थात् व्रतों की शुद्धि करने वाली क्रियाओं में निरन्तर उपयुक्त हैं, उन्हें आचार्य परमेष्ठी समझना चाहिए अर्थात् जिनसिद्धान्त में उनको आचार्य परमेष्ठी कहते हैं। उपाध्याय परमेष्ठी का स्वरूप व्रतसमितिगुप्तिसंयमशीलगुणोज्वलविभूषणोपेताः। देशकुलादिविशुद्धा विजितकषायादिरिपुवर्गाः ॥२१८॥ स्वपरसमयागमानां व्याख्यानरताः स्वशक्तिसारेण । भव्याम्बुजवनदिनपाः भवन्त्युपाध्यायनामान: ॥२१९॥ युग्मम्॥ अन्वयार्थ - व्रतसमितिगुप्तिसंयमशीलगुणोज्ज्वलविभूषणोपेताः - व्रत, समिति, गुप्ति, संयम, शील आदि गुण रूपी उज्ज्वल विभूषणों से युक्त। देशकुलादिविशुद्धाः - देशकुल आदि से शुद्ध। विजितकषायादिरिपुवर्गाः - जीत लिया है कषाय आदि विभाव भाव रूप शत्रुवर्गों को जिन्होंने। स्वशक्तिसारेण - अपनी शक्ति के अनुसार । स्वपरसमयागमानां - स्वसमय (जिनधर्म के शास्त्र) और परसमय (अन्य मिथ्यादृष्टियों के शास्त्रों) के। व्याख्यानरताः - व्याख्यान करने में लीन । भव्याम्बुजवनदिनपा: - भव्यरूपी कमलों को विकसित करने के लिए सूर्य के समान । उपाध्यायनामान: - उपाध्याय नामक परमेष्ठी। भवन्ति - होते हैं। भावार्थ - व्रत, समिति, गुप्ति, संयम, शील और गुणों के स्वरूप का कथन चारित्र आराधना में विस्तार पूर्वक किया है। देश, कुल और जाति का कथन आचार्य के गुणों का कथन करते समय किया है। प्राचीन आचार्यों ने साधुपद को स्वीकार करने वाले के कुल, जाति, देश की शुद्धि आवश्यक बतलाई है। अतः आचार्य और उपाध्याय का जाति, कुल और देश शुद्ध यह विशेषण दिया है। जिसका देश-कुल-जाति शुद्ध नहीं है, वह मुनिदीक्षा के योग्य नहीं है, अतः वे उपाध्याय नहीं हो सकते। प्रवचनसार, षटूखण्डागम आदि ग्रन्थों में आचार्यों ने दिगम्बर दीक्षा ग्रहण करने वाले का प्रथम विशेषण देश, कुल, जाति शुद्ध दिया है। जो मानव अहिंसादि पाँच महाव्रत, ईर्यादि पाँच समिति, मन, वचन और काय को वश में करने रूप तीन गुप्ति, द्रव्य और भाव रूप संयम और अठारह हजार शील रूप उज्ज्वल गुणों से विभूषित हैं, वे ही उपाध्याय हो सकते हैं।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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