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________________ आराधमासमुच्चयम् . २८६ व्युत्सर्ग - अंतरंग-बाह्य परिग्रह का त्याग करना व्युत्सर्ग है। ध्यान - आर्त, रौद्र ध्यान का परित्याग कर धर्म एवं शुक्ल ध्यान में लीन होना ध्यान नामक तप है। ये अन्तरंग तप हैं। षट् आवश्यकः प्रतिक्रमण - भूतकाल में किये गये पापों का पश्चाताप करना । प्रत्याख्यान - भविष्यकाल में होने वाले पापों का त्याग करना अथवा इतने काल तक मैं सावध योग में प्रवृत्ति नहीं करूंगा, ऐसी प्रतिज्ञा करना। समता - सुख में, दुःख में, जीवन-मरण में, लाभ - अलाभ में, बंधु - शत्रु में, महल - मसान में समभाव रखना। वंदना - एक भगवान की स्तुति करना। संस्तवन - चौबीस भगवान की स्तुति करना। कायोत्सर्ग - शरीर के ममत्व का त्याग कर धर्मध्यान अथवा शुक्ल ध्यान में लीन होना । ये षट् आवश्यक हैं। इस प्रकार इन छत्तीस प्रकार के गुणों से मुलोभित आचार्य होते हैं। ये छत्तीस गुण चारित्रगुण की अपेक्षा से कहे हैं, इस प्रकार के चारित्रधारी को आचार्य कहते हैं। ज्ञान की अपेक्षा वे आचार्य वर्तमानकालीन सारे शास्त्रों के ज्ञाता होते हैं। जो स्वसमय, परसमय का ज्ञाता है अर्थात् न्याय ग्रन्थ, प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग आदि सारे जैन सिद्धान्त का ज्ञाता होता है और अन्य मत के शास्त्र का ज्ञाता है अर्थात् षट्दर्शन को जानने वाला ही आचार्य होता है। __ अपनी शक्ति के अनुसार निर्मल सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र, सम्यक्तप और वीर्य में जो यत्न किया जाता है, इनमें निर्मल अंतरंग भावों से प्रवृत्ति की जाती है; उसको आचार कहते हैं, वह आचार दर्शनाचारादि के भेद से पाँच प्रकार का है। सम्यग्दर्शन आठ अंग सहित होता है - निःशंकित - जिनेन्द्रकथित तत्त्वों में शंका नहीं करना वा आत्मतत्त्व के अस्तित्व में अडोल, अकम्प, आस्था होना निःशंकित अंग है। संसार के भोगों की कांक्षा (इच्छा) नहीं करना नि:कांक्षित अंग है। स्वभाव से अशुचि परन्तु रत्नत्रय से पवित्र मुनिजनों के शरीर से ग्लानि नहीं करना तथा जिनधर्म से अरुचि नहीं करना निर्जुगुप्सा अंग है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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