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आराधनासमुच्चयम् २८५
यदि कोई उपसर्ग आ जाये तो चातुर्मास के भीतर भी अन्य स्थान में गमन कर सकते हैं। यह पाद्य अर्थात् वर्षायोग नामक स्थिति कल्प है। मूलाराधना टीका में उल्लेख है कि दो-दो महीने से निषिद्धिका द्रष्टव्य है।
१२ प्रकार का तप आचार्य का गुण है। पौद्गलिक पंचेन्द्रिय विषयों में प्रवृत्ति करने वाली इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों से रोककर स्वाध्याय आदि शुभ कार्यों में लगाना या उनका निरोध करना तप कहलाता है। बाह्य और अभ्यन्तर के भेद से तप दो प्रकार का है। जिसका शरीर के द्वारा आत्मा के साथ सम्बन्ध हो अथवा बाह्य में दृष्टिगोचर हो, वह बाह्य तप कहलाता है। जिसका आत्मा के साथ सम्बन्ध हो, बाह्य दृष्टिगोचर न हो, वह अन्तरंग तय कहलाता है।
अनशन - चार प्रकार के आहार का त्याग कर अपनी आत्मा में वास करना अनशन या उपवास कहलाता है। इसका उत्कृष्टकाल एक वर्ष और जघन्य काल एक दिन आदि है, मध्यम के अनेक भेद हैं।
अवमौदर्य - इन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने के लिए तथा स्वाध्याय की सिद्धि के लिए भूख से कम खाना, पूर्ण उदर भर नहीं खाना, अवमौदर्य अथवा ऊनोदर व्रत है।
वृत्तिपरिसंख्यान - आहार के लिए जाते समय घर, मोहल्ला, दाता, बर्तन, वस्तु आदि का नियम लेना। इससे कर्मों की निर्जरा होती है।
रसपरित्याग - इन्द्रियों की वासना को जीतने के लिए घृत, तेल, दूध, दही, लवण, मुड़ आदि छहों रसों का या उनमें से एक, दो रसों का त्याग करना।
विविक्तशय्यासन - स्वाध्याय, ध्यान की वृद्धि के लिए तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए एकान्त स्थान में बैठना, शयन करना।
कायक्लेश - कर्मों का संवर और निर्जरा करने के लिए उग्र तप करना, शीत - उष्ण, भूख-प्यास की बाधा को सहन करना। ये छह बहिरंग तप हैं।
प्रायश्चित्त - अज्ञान के कारण व्रतों में लगे हुए दोषों का निराकरण करने के लिए गुरुओं के समीप जाकर प्रायश्चित्त लेकर दण्ड लेना।
विनय - सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक् चारित्र और सम्यक्तप आदि का विनय करना ।
वैयावृत्ति - आचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु, रुग्ण, शैक्ष्य, कुल, गण, तपस्वी, मनोज्ञ आदि की वैयावृत्ति करना, उनके दुखों को दूर करना।
स्वाध्याय - आत्महित करने के लिए, समीचीन ज्ञान प्राप्त करने के लिए वीतराग देव प्रणीत शास्त्रों का पठन-पाठन करना स्वाध्याय है।