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________________ आराधनासमुच्चयम् - २५६ उग्रदुःखजलपूर्णे - उग्रदुःख रूपी जल से परिपूर्ण। संसाराब्धौ - संसार समुद्र में। भ्रमयति - भ्रमण कराता है। अर्ध - ॐआदिकाल से मिथ्यादर्श, अविरति, कषाय और योग के द्वारा आगत कर्म आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाही है। ये ही मिथ्यात्वादि भावाम्नव और पुद्गल कर्म रूप द्रव्यानव इस प्राणी को दुःखों से परिपूर्ण इस संसार में भ्रमण कराते हैं, अर्थात् यह संसारी प्राणी आस्त्रव के कारण चिर काल से संसार में भटक रहा है। प्रागाश्रितकर्मवशाद् दुःपरिणामा भवन्ति तेभ्योऽन्यत् । बध्नाति दुरितमेवं बीजांकुररूपतास्रवणे ॥१७५॥ । इत्यासवानुप्रेक्षा। अन्वयार्थ - प्रागाश्रितकर्मवशात् - पूर्व में उपार्जित कर्म के वश से। दुःपरिणामः - दुष्परिणाम। भवन्ति - होते हैं। तेभ्यः - उन दुष्परिणामों से। अन्यत् - दूसरे। दुरितं - पाप कर्मों को। बध्नाति - बाँधता है। एवं - इस प्रकार । आनवणे - आस्रव में। बीजाङ्कुररूपता - बीज और अकुर के समान कार्य-कारण रूपता है।।७४ ।। ____ अर्थ - जब प्राणी के पूर्व में बँधे हुए कर्मों का उदय आता है, तब दुष्परिणाम होते हैं, पापमय प्रवृत्ति होती है तथा उन दुष्परिणामों से नवीन कर्मों का आस्रव होता है। पुन: वे कर्म उदय में आते हैं, फिर कर्मों का आस्रव होता है। इस प्रकार आस्रव और परिणामों में बीज-अंकुरता वा कारण-कार्य पना है। आस्रव दो प्रकार का है- भाव और द्रव्य। द्रव्य आस्रव पुद्गल कर्मों का आगमन है और भाव आनव जीव के परिणाम हैं। जीव के परिणामों का निमित्त पाकर पुद्गल वर्गणा स्वयमेव (स्वकीय उपादान से) कर्म रूप परिणत हो जाती है और पौद्गलिक कर्मों के उदय का निमित्त पाकर परिणमन स्वरूप आत्मा स्वयमेव रागद्वेष रूप परिणत हो जाता है। अतः द्रव्य कर्म के आने का निमित्त भाव कर्म है और भाव कर्म का निमित्त, द्रव्य कर्म है। जैसे बीज का कारण वृक्ष और वृक्ष का कारण बीज है। इस प्रकार द्रव्य और भाव कर्म में परस्पर कार्य-कारणता है। संवरानुप्रेक्षा संसारवारिराशेस्तरणेऽवान्तरसमुद्भवाभ्युदय-। प्राप्तौ च कारणं स्यात्संवरणं जन्तुनिवहस्य ॥१७६|| अन्वयार्थ - जन्तुनिवहस्य - संसारी प्राणियों के समूह के। संसारवारिराशेः - संसारसमुद्र को। तरणे - तिरने में। च - और 1 अवान्तरसमुद्भवाभ्युदयप्राप्ती - अवान्तर समुत्पन्न अभ्युदयों की प्राप्ति में। कारणं - कारण। संवरणं - संवर। स्यात् - होता है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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