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आराधनासमुच्चयम् - २५७
अर्थ - जो संसारी प्राणियों के संसारसमुद्र को तारने में और स्वर्गादि अभ्युदय के देने में कारण है अर्थात् सांसारिक सुख एवं मोक्ष को प्रदान करने में समर्थ होता है, उसको संवर कहते हैं। कर्मों के आगमन द्वार रूप आम्रव का प्रतिबन्धक संवर कहलाता है।
यद्वदनास्रवपोतो वाञ्छितदेशं भृशं समाप्नोति ।
तद्वदनानवजीवो वाञ्छितमुक्तिं समाप्नोति ॥१७७।। अन्वयार्थ - यद्वत् - जिस प्रकार ! अनामवोत: - पानी के गगमन से रहित नौका । भृशं - शीघ्र ही। वाञ्छितदेशं - इच्छितदेश को। समाप्नोति - प्राप्त हो जाती है। तद्वत् - उसी प्रकार । अनानवजीव: - आस्रवरहित जीव । वाञ्छितमुक्तिं - इच्छितमुक्तिपद को। समाप्नोति - प्राप्त हो जाता है।।७६॥
अर्थ - जिस प्रकार छिद्र रहित एवं पानी के आगमन रहित नौका शीघ्र ही इष्ट स्थान पर पहुँच जाती है, उसी प्रकार अनास्रव जीव शीघ्र ही मुक्तिस्थान को प्राप्त हो जाता है अर्थात् संवर से मुक्तिप्राप्ति होती है।
संवर के कारण संवरहेतुः सम्यग्दर्शन-संयमकषायरहितत्त्वम् ।
योगनिरोधास्तेषां भेदा वेद्याः सदागमतः ।।१७८॥ अन्वयार्थ - सम्यग्दर्शन-संयम-कषाय-रहितत्वं - सम्यग्दर्शन, संयम और कषाय रहित। योगनिरोथाः - योगनिरोध । संवर - हेतुः - संवर का कारण है। तेषां - उन संवर के । भेदाः - भेद। सदागमतः - समीचीन आगम से । वेद्या: - जानने चाहिए।
अर्थ - सम्यग्दर्शन, संयम, कषाय का अभाव और योगों का निरोध संवर का कारण है अर्थात् इन कारणों से कर्मों का आना रुक जाता है। संवर के उन भेदों को समीचीन आगम से जानना चाहिए।
तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यग्दर्शन कहते हैं। पंचेन्द्रिय और मन का निग्रह करना तथा छह काय के जीवों का घात नहीं करना संयम हैं।
आत्मा को कषने वाली, दुःख देने वाली कषाय है। उस कषाय का अभाव करना निष्कषाय बनना है।
मन, वचन और काय के निमित्त से आत्मप्रदेशों में जो परिस्पन्दन होता है, वह योग है। उन मन, वचन, काय रूप योग का अभाव योगनिरोध कहलाता है।
___सम्यग्दर्शन, संयम, निष्कषाय भाव और योगों की चंचलता का अभाव ही संवर है। कर्मागमन द्वार आम्रव का निरोध रूप संवर इन्हीं कारणों से होता है। संवर के कारणों को विशेष रूप से वीतराग, सर्वज्ञकथित आगम से जानना चाहिए।