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आराधनासमुच्चयम् *२५५
__ समीचीन ज्ञान को प्राप्त न करके मिथ्यादृष्टि प्रणीत शास्त्रों को प्रमाण मानकर अज्ञानपूर्वक क्रिया करना अज्ञान मिथ्यात्व है।
छह काय के जीवों की विराधना करना और पाँच इन्द्रियों एवं मन को वश में नहीं करना बारह प्रकार की अविरति है।
अनन्त संसार के कारणभूत मिथ्यात्व का अनुसरण करने वाली, एक बार बँधने के बाद अनन्तभव तक साथ में रहने वाली अनन्तानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ है।
देशसंयम की घातक वा जिसके उदय में जीव 'अ' ईषद् (थोड़ा सा) भी प्रत्याख्यान (त्याग) करने में समर्थ नहीं होता वे अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ हैं। सम्पूर्ण त्याग न कर सके वा जो सकल संयम की घातक है, वह प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ है। संयम के साथ प्रज्वलित रहे ऐसी यथाख्यात चारित्र की घातक संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ रूप ये १६ कषाय हैं |
हास्य - जिसके उदय से हँसी आती है। रति - जिसके उदय से पंचेन्द्रिय-विषयों में रति (प्रेम) होती है। अरति - जिसके उदय से धार्मिक कार्यों में अरुचि होती है। शोक - जिसके उदय से शोक-संताप से मन खेद खिन्न होता है।
भय - जिसके उदय से जीव भयभीत रहता है। जुगुप्सा (ग्लानि) - जिसके उदय से प्राणी ग्लानियुक्त होता है। स्त्रीवेद - जिसके उदय से पुरुष के साथ रमण करने की भावना होती है।
पुरुष वेद - जिसके उदय से स्त्री के साथ रमण करने की अभिलाषा उत्पन्न होती है। नपुंसक वेद - जिसके उदय से दोनों के साथ रमण करने की भावना जागृत होती है। ये पच्चीस कषाय हैं।
सत्य मन, असत्य मन, उभय मन, अनुभय मन; सत्य वचन, असत्य वचन, उभय वचन, अनुभय वचन; औदारिक काययोग, औदारिक मिश्रकाययोग, आहारक काययोग, आहारक मिश्र काययोग, वैक्रियिककाय योग, वैक्रियिक मिश्र काय योग कार्माण काययोग ये १५ योग हैं। इन १५ योगों के द्वारा आत्मप्रदेशों में परिस्पन्दन होता है। मिथ्यात्व, अविरति, कषाय और योगरूप आस्त्रव के सत्तावन भेदों से कर्मों का आगमन होता है।
आस्रव के फल का कथन कारणवशेन गाढं लग्नं कर्मोग्रदुःखजलपूर्णे ।
भ्रमयति संसाराब्धौ सुचिरं कालं तु जन्तुगणम् ॥१७४|| अन्वयार्थ - कारणवशेन - इन सत्तावन कारणों के द्वारा । गाढं - अत्यन्त गाढ़ रूप से। लग्नं - लगे हुए। कर्म • कर्म। जन्तुगणं - संसारी प्राणियों को। सुचिरं - बहुत । कालं - काल तक ।