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आराधनासमुच्चयम् २५४
अन्वयार्थ - बहुदोषवीचिके - बहुदोष रूपी जिसमें लहरें हैं। दुःखजलचराकीर्णे - दुःख रूपी जलचरों से व्याप्त । जन्मसमुद्रे संसार समुद्र में। जीवस्य जीव के परिभ्रमणे - परिभ्रमण में । निमित्तमात्रास्रवः - निमित्तमात्र आस्रव । भवति होता है।
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अर्थ संसार एक महान् समुद्र हैं, जिस प्रकार समुद्र लहरों से व्याप्त होता है, यह संसार-समुद्र रागद्वेषादि बहुत से दोषरूपी लहरों से व्याप्त है। समुद्र जलचर जीवों से भरा रहता है, यह समुद्र भी इष्टवियोग, अनिष्टसंयोग, शारीरिक एवं मानसिक दुःख रूपी जलचर जीवों से व्याप्त है। ऐसे इस संसार रूपी समुद्र में अनादिकाल से परिभ्रमण करते हुए जीव के कर्मों का आगमन द्वार आस्रव ही एक मात्र निमित्त है अर्थात् आस्त्रव के कारण ही यह जीव संसार में भटक रहा है ||७० ॥
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अन्वयार्थ - यद्वत् - जिस प्रकार । सास्रवपोतः वारिधिमध्ये समुद्र के मध्य में। क्षिप्रं शीघ्र ही । निमज्जति कर्मास्रववज्जीवः कर्म आस्रव सहित जीव । संसारवारिनिधौ
निमज्जति - डूब जाती हैं ॥ ७१ ॥
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अर्थ - जिस प्रकार जिसमें छिद्रों से पानी आ रहा है ऐसी नौका शीघ्र ही समुद्र के मध्य में डूब जाती है; उसी प्रकार जिस प्राणी के कर्मों का आस्रव हो रहा है, वह प्राणी संसार-समुद्र में डूब जाता है आस्रवहेतुर्मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगकाः पञ्च ।
द्वादशकपञ्चविंशति पञ्चादशभेदयुक्ताश्च ।। १७३ ।।
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यद्वत्सापोतो वारिधिमध्ये निमज्जति क्षिप्रम् । तद्वत्कर्मास्रववज्जीवः संसारवारिनिधौ ॥१७२ ।।
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जिसमें पानी आ रहा है ऐसी नौका |
डूब जाती है। तद्वत्
उसी प्रकार ।
संसार समुद्र में क्षिप्रं - शीघ्र ही ।
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अन्वयार्थ - पञ्च द्वादशक पंचविंशति पंचादश भेदयुक्ताः - पाँच, बारह, पच्चीस, पन्द्रह
भेदों से युक्त । मिथ्यात्वाविरति - कषाययोगकाः - मिध्यात्व, अविरति, कषाय और योग । आस्रषहेतुः
आस्रव के कारण हैं।
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अर्थ विपरीत, एकान्त, विनय, संशय और अज्ञान ये पाँच प्रकार के मिथ्यात्व हैं।
वस्तु
के स्वरूप को विपरीत जानना विपरीत मिथ्यात्व है।
नित्य वा अनित्य, एक वा अनेक आदि एक रूप ही मानना अर्थात् अनेक धर्मात्मक वस्तु को एक रूप ही मानना एकान्त मिथ्यात्व है।
वस्तु का निर्णय नहीं करना संशय मिध्यात्व है ।
सत्य, असत्य, देव, कुदेव, गुरु, कुगुरु, शास्त्र, कुशास्त्र की परीक्षा न करके सबका विनय करना विनय मिध्यात्व है।