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________________ आराधनासमुच्चयम् २५३ अती। शरीर का स्पर्श भी अशुचि का कारण शुचिसुरभिपूतजलमालाम्बरगन्धाक्षतादि वस्तूनि । स्पर्शेनाशुचिभावं नयति कथं शुचि भवेदङ्गम् ॥१६९ ।। अन्वयार्थ - शुचि सुरभि पूत जल मालाम्बर गन्धाक्षतादि वस्तूनि - पवित्र, सुगन्धित, पूत, जल, माला, वस्त्र, गंध, अक्षत आदि वस्तुयें। स्पर्शेन - जिसके स्पर्श मात्र से। अशुचिभावं - अशुचिभाव को। नयति - प्राप्त हो जाते हैं, वह । अंगं - अंग। शुचि - पवित्र । कथं - कैसे। भवेत् - हो सकता है। __ अर्थ - यह शरीर स्वयं तो अपवित्र है ही, परन्तु इस शरीर के स्पर्श मात्र से निर्मल, सुगन्धेित, पवित्र जल, पुष्पमाला, वस्त्र, गन्ध, अक्षत आदि उत्तम, उत्तम वस्तुएँ अपवित्र, दुर्गन्धित, मलिन हो जाती हैं, ऐसा यह शरीर किसी प्रकार से पवित्र नहीं हो सकता। यह स्वभाव से ही अपवित्र है। चर्म के बिना शरीर की रक्षा अशक्य मक्षिकपत्रसमानं यदि चर्माङ्गस्य भवति नो बाह्ये। द्रष्टुं स्प्रष्टुं काकादिभ्यस्त्रातुं च नो शक्यम् ॥१७॥ । इत्यशुचित्वानुप्रेक्षा। अन्वयार्थ - अङ्गस्य - शरीर के । बाह्ये - बाह्य में। यदि - यदि । मक्षिकापत्रसमानं - मक्खी के पंख के समान सूक्ष्म। चर्म - चमड़ा। नो - नहीं। भवति - होता तो। द्रष्टुं - देखने के लिए। स्प्रष्टुं - स्पर्श करने के लिए। च - और । काकादिभ्यः - कौआ आदि पक्षियों से । त्रातुं - रक्षा करने के लिए। शक्यं - शक्य । नो - नहीं है। अर्थ : इस भौतिक शरीर के आच्छादन रूप मक्खी के पंख से भी अधिक सूक्ष्म चर्म है, जिससे यह सुरक्षित है। यदि यह शरीर चर्म से आच्छादित नहीं होता तो इसको कोई देखने और छूने में समर्थ नहीं होता तथा इसको कौवे, चींटियाँ नोंच कर खा जाते; उनसे इसकी रक्षा करने में कोई समर्थ नहीं होता। इस प्रकार का चिंतन कर शरीर से विरक्त होना अशुचि भावना है। इस प्रकार अशुचि भावना के चिंतन से संसार एवं शरीर से विरक्ति होती है और जीव सांसारिक वासनाओं से हटकर आत्मकल्याण के मार्ग में लग जाता है। जो शरीर के स्वरूप को न जानकर उसको सजाने में लीन रहते हैं, वे कभी अपना कल्याण नहीं कर सकते। अत: अशुचि भावना को ध्यान रूप तप में गर्भित किया है। आस्रयानुप्रेक्षा जन्मसमुद्रे बहुदोषवीचिके दुःखजलचराकीर्णे। जीवस्य परिभ्रमणे निमित्तमात्रामवो भवति ।।१७१ ।।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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