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________________ आराधनासमुच्चयम् + २४७ चित्रा पृथ्वी के नीचे खर व पंक भाग से एक लाख योजन तथा चित्रा पृथ्वी के ऊपर मेरु की चोटी तक ९९.००० योजन ऊँचा और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त भावन लोक है। भावन लोक बराबर व्यंतर लोक है। चित्रा पृथ्वी से सात सौ नब्बे योजन ऊपर लाका १० योजन बाहल्य और एक राजू प्रमाण विस्तार युक्त ज्योतिषी लोक है। इस भूतल से ७९० योजन ऊपर तारागण हैं। तारागण से दश योजन ऊपर जाने पर सूर्य विमान है। सूर्य से दश योजन ऊपर चन्द्रमा स्थित है। इससे चार योजन ऊपर नक्षत्र स्थित हैं। उससे चार योजन ऊपर बुध है, उससे तीन योजन ऊपर गुरु (बृहस्पति) है। उसके तीन योजन ऊपर शुक्र है, उसके तीन योजन ऊपर मंगल है। उससे तीन योजन ऊपर शनि है। यह एक सौ दश योजन मोटा - एक राजू विस्तार वाला ज्योतिर्लोक है। ऊर्ध्वलोक मध्यलोक के ऊपरी भाग से सौधर्म विमान का ध्वजदण्ड एक लाख योजन कम डेढ़ राजू प्रमाण ऊँचा है। इसके ऊपर डेढ़ राजू प्रमाण नभस्थल में माहेन्द्र और सानत्कुमार स्वर्ग की सीमा है। इसके ऊपर अर्ध राजू प्रमाण आकाश में ब्रह्म-ब्रह्मोत्तर स्वर्ग स्थित है। उसके आगे आधे राजू प्रमाण नभस्थल में लान्तव-कापिष्ठ स्वर्ग है। इसके ऊपर आधे राजू प्रमाण गगनतल में शुक्र-महाशुक्र स्वर्ग है। उसके ऊपर आधे राजू प्रमाण आकाश में सतार-सहस्रार नामक स्वर्ग स्थित है। इसके ऊपर आधे राजू प्रमाण गगनतल में आनत, प्राणत स्वर्ग है। इसके ऊपर आधे राजू प्रमाण नभस्थल में आरण और अच्युत स्वर्ग है। यहाँ तक का स्थान कल्प कहलाता है क्योंकि यहाँ तक स्वर्ग विमानों में इन्द्र, सामानिक, त्रायस्त्रिंश, पारिषद, आत्मरक्ष, लोकपाल, अनीक, प्रकीर्णक, आभियोग्य और किल्विषिक रूप से दश भेदों की कल्पना है, अतः ये कल्पोपपन्न हैं। इनके ऊपर एक राजू प्रमाण आकाश क्षेत्र में नव ग्रैवेयक, नव अनुदिश और पाँच अनुत्तर विमान हैं। ये कल्पातीत हैं। स्वर्गलोक के पटल उत्तरकुरु में स्थित मनुष्यों के एक बाल हीन चार सौ पच्चीस धनुष और एक लाख इकसठ योजनों से रहित सात राजू प्रमाण आकाश में ऊपर-ऊपर स्वर्ग पटल स्थित हैं। मेरु की चूलिका के ऊपर उत्तरकुरु क्षेत्रवर्ती मनुष्य के एक बाल मात्र के अन्तर से प्रथम इन्द्रक स्थित है। लोकशिखर के नीचे ४२५ धनुष और २१ योजन मात्र जाकर अन्तिम इन्द्रक स्थित है। शेष इकसठ इन्द्रक इन दोनों इन्द्रकों के बीच में हैं। ये सब रत्नमय इन्द्रक विमान अनादिनिधन हैं। स्वर्ग में दो प्रकार के पटल हैं - कल्प और कल्पातीत । कल्पपटलों के सम्बन्ध में दृष्टिभेद है। कोई १२ कहता है और कोई १६, कल्पातीत पटल तीन हैं। १२ कल्प की मान्यता के अनुसार अधो, मध्यम व उपरिम भाग में चार-चार कल्प हैं और १६ कल्पों की मान्यता के अनुसार ऊपर-ऊपर आठ युगलों में
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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