SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 225
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् ०२१६ जिस प्रकार इस लोक में मुट्ठी में बँधी हुई बालू रेत मुट्टी से भिन्न है, उसी प्रकार सारे संसार के सम्पूर्ण चेतन-अचेतन पदार्थ, पुत्र, पौत्रादिक, घर, सुवर्ण, आभूषणादिक आत्मा से भिन्न हैं, भिन्न स्वभाव वाले हैं। आत्मा से भिन्न कारणों से उत्पन्न हैं तथापि यह प्राणी सांसारिक कार्यों के कारण शत्रु और मित्र होता है, परन्तु वास्तव में कोई भी शत्रु, मित्र नहीं है। ___ जो नीर-क्षीर के समान एकक्षेत्रावगाही होकर दृष्टिगोचर हो रहा है, वह तथा अन्य घर, धनधान्यादि वस्तुएँ ज्ञानदर्शन स्वभाव वाले आत्मा से पृथक हैं, भिन्न हैं, इस प्रकार का विचार ही बुद्धिमत्त्व है, सम्यग्ज्ञानयुक्त है। शरीर और आत्मा का बन्ध की अपेक्षा अभेद होने पर भी लक्षण की अपेक्षा भेद हैं क्योंकि शरीर ऐन्द्रियक है, आत्मा अतीन्द्रिय है, शरीर अज्ञ है, आत्मा ज्ञानी है, शरीर जड़ है, आत्मा चैतन्य है, शरीर अनित्य है, आत्मा नित्य है, शरीर आदि-अन्त वाला है और आत्मा अनादि अनन्त है। इस आत्मा ने मोकर्म के वशीभूत होकर अनन्त शरीर धारण किये हैं। जब शरीर ही आत्मा से भिन्न है, आत्मा का स्वरूप नहीं है तो पुत्र, पौत्रादिक प्रत्यक्ष पृथक् दृष्टिगोचर होने वाले आत्मा के कैसे हो सकते हैं। इस प्रकार चिंतन करना अन्यत्वानुप्रेक्षा है। संसारानुप्रेक्षा का लक्षण पञ्चविधे संसारे कर्मवशाज्जैनदेशितं मुक्तेः। मार्गमपश्यन्प्राणी नानादुःखाकुले भ्रमति ।।१५२॥ सर्वेऽपि पुद्गलाः खल्वेकेनात्तोज्झिताश्च जीवेन । ह्यसकृत्वनन्तकृत्वः पुद्गलपरिवर्तसंसारे॥१५३।। सर्वत्र जगत्क्षेत्रे देशो न ह्यस्ति जन्तुनाक्षुण्णः । ह्यवगाहनानि बहुशो बंभ्रमता क्षेत्रसंसारे॥१५४।। उत्सर्पणावसर्पणसमयावलिकासु निरवशेषासु। जातो मृतश्च बहुश: परिभ्रमन्कालसंसारे॥१५५॥ नरक-जघन्यायुष्याधुपरिग्रैवेयकावसानेषु । मिथ्यात्वसंश्रितेन हि भवस्थितिर्भाविता बहुशः॥१५६॥ सर्वप्रकृति-स्थित्यनुभाग-प्रदेश-बन्धयोग्यानि । स्थानान्यनुभूतानि भ्रमता भुवि भावसंसारे॥१५७।। । इति संसारानुप्रेक्षा। अर्थ - मुक्ते: - मुक्ति के। मार्ग - मार्ग को। अपश्यन् - नहीं देखता हुआ। प्राणी - संसारी
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy