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आराधनासमुच्चयम् * २१५
अन्योऽज्ञोऽयं प्राणी मोहोदयविह्वलीकृतोऽन्यस्य । शोके हर्षे जाते करोति बत शोकहर्षी च ॥१४९ ॥ कार्येण जनस्य जनः शत्रुर्मित्रं च भवति लोकेऽस्मिन् । भिभावकोऽयं टिकतामुष्टिलदजननः ।।१५०॥
ज्ञानादिगुणप्रकृतिक-जीवद्रव्यात्परं स्वकायादि । यद् दृश्यते समस्तं तदन्यदिति बुद्धिमत्तत्त्वम्॥१५१॥
। इत्यन्यत्वानुप्रेक्षा। अन्वयार्थ - मारुत: - वायु। इव - जैसे। जीर्णपर्णानि - जीर्ण (सूखे) पत्तों को। योजयति - एकत्र कर देती है। च - और। वियोजयति - अलग-अलग कर देती है। उसी प्रकार । कर्म - कर्म। मातृपितृ पुत्र पौत्र भ्रातृकलत्रादि बन्धुतां - माता, पिता, पुत्र, पौत्र, स्त्री आदि की बन्धुता को। योजयति - एकत्र कर देता है। च - और कर्म ही उनका । वियोजति - वियोग करा देता है ।।४७॥
मोहोदयविह्वलीकृत: - मोह के उदय से विह्वल हुआ। अयं - यह। अन्य: - अन्य। अज्ञ: - अज्ञानी । प्राणी - प्राणी। अन्यस्य - अन्य जीव के। शोके - शोक | च - और । हर्षे - हर्ष के । जाते - होने पर। बत - बड़े खेद की बात है कि स्वयं । शोकहर्षों - शोक और हर्ष । करोति - करता है ।।४८ ।।
अस्मिन् - इस । लोके - लोक में। सिकतामुष्टिवत् - बालू रेत की मुष्टि के समान । अयं - यह। अशेषजन: - अशेषजन । भिन्नस्वभावकः - भिन्नस्वभाव वाले हैं फिर भी यह अज्ञ । जन: - प्राणी। जनस्य - जन के (अन्य जन के) कार्येण - कार्य से। शत्रुः - शत्रु । च - और। मित्रं - मित्र । भवति - होता है।४९॥
स्वकायादि - स्वकीय शरीर आदि । यत् - जितने । समस्तं - सारी वस्तुयें। दृश्यते - दृष्टिगोचर हो रही हैं। तत् - वे ! ज्ञानादिगुणप्रकृतिकजीवद्रव्यात् - ज्ञानादि गुण स्वभाव वाले जीवद्रव्य से। पर - भिन्न है। इति - इस प्रकार। अन्यत् - अन्यत्वानुप्रेक्षा ही। बुद्धिमत्तत्त्वं - बुद्धिमत् तत्त्व है ।।५० ।।
अर्थ - जिस प्रकार वायु जीर्ण सूखे पत्तों को एकत्र कर देती है तथा उनको पृथक् भी कर देती है, उसी प्रकार संसारी प्राणियों का यह कर्म माता, पिता, पुत्र, पौत्र, स्त्री आदि कुटुम्बियों से संयोग भी कराता है और वियोग भी अर्थात् पुत्र, पौत्रादि सांसारिक पदार्थों का संयोग और वियोग कर्मजन्य है, आत्मा से भिन्न है, तथापि मोहनीय कर्म के उदय से विह्वल हुआ अज्ञ प्राणी आत्मा से भिन्न पदार्थों के संयोग और वियोग से सुख-दुःख का अनुभव करता है। अन्य पदार्थों के अर्थात् पुत्र, पौत्रादि के हर्ष-विषाद में स्वयं हर्ष-विषाद करता है।
___ माता, पिता, भाई, पुत्र, स्त्री आदि बन्धुजनों का समूह अपने कार्य के वश सम्बन्ध रखता है, परन्तु यथार्थ में जीव का इनसे कोई सम्बन्ध नहीं है।