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________________ आराधनासमुच्चयम् २१४ अन्वयार्थ - आत्मा - आत्मा (जीव)। एकः - अकेला ही। गर्भिकनवयौवनमध्यत्ववृद्धतावस्था: - गर्भ, बच्चा, नव यौवन, मध्यावस्था, बुढ़ापा अवस्था । व्याधिभयमरणशोकव्यायासान् - व्याधि, भय, मरण, शोक, दुःखादि का। अनुभवति - अनुभव करता है।॥४४॥ एक: - अकेला ही आत्मा । स्वनिभिसवशात् - स्वनिमित्त के वश से। विचित्रपरिणामैः - विचित्र परिणामों के द्वारा। विविधसुख-दुःखकारणशुभाशुभाख्यानकर्मसंघातं - विविध सुखों और दुःखों के कारणभूत शुभ एवं अशुभ नामक कर्मसमूह को। बध्नाति - बाँधता है ॥४५॥ स्वयं - आप ही। दृग्बोधनादिगुणरूपात्मा - दर्शन, ज्ञानादि गुण रूप आत्मा। एक: - अकेला ही। निमित्ताभ्यां - अंतरंग (उपादान), बहिरंग (निमित्त) इन दोनों कारणों के द्वारा । कर्माष्टकं - आठों कर्मों के समूह को। समूलं - मूल से । उन्मूल्य - उखाड़ करके। निर्वाणसुखं - निर्वाण सुख को। उपैति - प्राप्त करता है।।४६।। यह आत्मा अकेला ही गर्भ सम्बन्धी दुःखों को भोगता है, अकेला ही बालपन, युवापन, मध्यावस्था और वृद्धावस्था सम्बन्धी अनेक दुःखों से पीड़ित होता है। शारीरिक पीड़ा, रोग, भय, मरण, शोक और अनेक प्रकार के मानसिक दुःखों का, चिन्ताओं का अकेला ही अनुभव करता है। अकेला ही यह आत्मा स्वनिमित्तवश विचित्र परिणामों के द्वारा विविध प्रकार के सुख-दुःख के कारणभूत अनेक प्रकार के कर्मों के समूह को बाँधता है और अकेला ही तज्जन्य सुख-दुःखों को भोगता दर्शन ज्ञान गुण स्वरूप आत्मा स्वयं अकेला ही अंतरंग और बहिरंग कारणों के द्वारा ज्ञानावरणादि आठों कर्मों के समूह को जड़ से उखाड़ कर निर्वाणसुख को प्राप्त करता है। ज्ञान-दर्शनादि अनंत गुणों का पिण्ड, शुद्ध बुद्ध एक निज स्वभाव को धारण करने वाला भी यह आत्मा अनादि काल से स्वरूप को भूलकर चतुर्गति रूप संसार में अनेक विभाव पर्यायों को धारण कर चौरासी लाख योनियों में अकेला ही जन्म, जरा मरण की आवृत्ति रूप महादुःखों का अनुभव कर रहा है। अकेला जन्म लेता है, अकेला मरता है और अकेला ही शुभ एवं अशुभ कर्मों के फल को भोगता है। कोई स्वजन या परिजन जन्म-जरा-मरणजन्य शारीरिक, मानसिक पीड़ाओं को दूर करने के लिए समर्थ नहीं है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप जो धर्म है, वही मेरे दुःख को मेटने में समर्थ है, अन्य कोई नहीं। इस रत्नत्रय रूप धर्म के द्वारा निर्विकल्प समाधि में लीन होकर कर्मरूप शत्रुओं का ध्वंस कर मैं अकेला ही निर्वाणसुख को प्राप्त कर सकता हूँ, अन्य कोई मुझे मोक्ष में पहुँचाने वाला नहीं है, इत्यादि रूप से चिंतन कर सांसारिक पदार्थों से ममत्व हटाना ही एकत्व भावना है। अन्यस्व अनुप्रेक्षा का लक्षण मातृपितृपुत्रपौत्रभ्रातृकलत्रादिबन्धुतां कर्म। योजयति वियोजयति च मारुत इव जीर्णपर्णानि ।।१४८ ।।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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