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आराधनासमुच्चयम्
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श्रेष्ठ घोड़े, हाथी, रथ, सेनापति, सेना, चक्र, शस्त्र आदि सम्पत्ति का स्वामी चक्रवर्ती भी प्राणियों को मृत्यु एवं आपत्ति में शरण नहीं है, आपत्ति में रक्षक नहीं हो सकता, अन्य की तो बात ही क्या है !
निश्चय रत्नत्रय से परिणत जो शुद्धात्म द्रव्य और उसके बहिरंग सहकारी कारणभूत पंच परमेष्ठियों की आराधना इन दोनों को छोड़कर देवेन्द्र, चक्रवर्ती, सुभट, कोटिभट और पुत्रादि चेतन पदार्थ तथा पर्वत, किला, तलघर, मणि, मंत्र, तंत्र, महलादि अचेतन पदार्थ तथा चेतन-अचेतन मिश्र पदार्थ आपत्ति एवं मरण के समय रक्षक नहीं हो सकते, इस जीव को आपत्ति और मृत्यु से बचा नहीं सकते।
जिसकी पराग तथा सौरभ से आकष्ट होकर भंवरे जिस पर गंज रहे हैं ऐसे कमल वन को मदोन्मत्त हाथी एक क्षण में उखाड़ कर फेंक देता है, उसी प्रकार यह मृत्युरूपी हाथी बलवन्त योद्धा, चक्रवर्ती, नारायण आदि सभी संसारी प्राणियों का निरंतर मर्दन करता है।
जिस प्रकार महावन में व्याघ्र द्वारा पकड़े हुए हिरण के बच्चे का अथवा सागर में जहाज से छूटे पक्षी का कोई रक्षक नहीं है, कोई शरण नहीं है; उसी प्रकार मृत्यु के मुख में आये हुए जीव को बचाने में कोई समर्थ नहीं है।
तीन लोक में स्थित मणि, मंत्र, औषधि, हाथी, घोड़ा, मित्र आदि कोई भी पदार्थ इस जीव को मृत्यु से बचाने में समर्थ नहीं है। परिश्रम से उपार्जित किया हुआ धन, निरंतर साथ में रहने वाले मित्रगण, एकत्र हुए कुटुम्बीजन और खान-पान देकर पुष्ट किया हुआ शरीर आदि भी विपत्ति में सहायक नहीं हो सकते एवं मृत्यु के मुख से जीव को बचा नहीं सकते, ऐसा चिंतन करना अशरणानुप्रेक्षा है।
अथवा इस भव में भ्रमण करते हुए अनेक दुःखों से दु:खी प्राणी के लिए धर्म को छोड़कर अन्य कोई शरण नहीं है अर्थात् सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र रूप धर्म वा वस्तु स्वभाव रूप धर्म ही हमारा रक्षक है, वही मित्र है, विपत्तिरूपी समुद्र से पार करने के लिए नौका है, अविनाशी है, अत: धर्म की शरण में रहना चाहिए।
एकत्वं भावना का स्वरूप
एको गर्भिकनवयौवनमध्यत्ववृद्धतावस्थाः। व्याधिभयमरणशोकव्यायासाननुभवत्यात्मा ॥१४५॥ विविधसुखदुःखकारणशुभाशुभाख्यानकर्मसंघातम् । स्वनिमित्तवशादेको बध्नाति विचित्रपरिणामैः॥१४६|| दृग्बोधनादिगुणरूपात्मा कर्माष्टकं निमित्ताभ्याम्। उन्मूल्य समूलं स्वयमुपैति निर्वाणसुखमेकः ॥१४७।।
(इत्येकत्वानुप्रेक्षा)