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आराधनासमुच्चयम् :- २१७
आत्मा । कर्मवशात् - कर्माधीन होकर जैनदेशित जिनेन्द्र द्वारा कथित | नानादुःखाकुले दुःखों से भरे हुए। पंचविधे पाँच प्रकार के । संसारे
संसार में भ्रमति - भ्रमण कर रहा है।
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पुद्रलपरिवर्त्तसंसारे - पुद्गल परिवर्तन रूप संसार में। खलु निश्चय से हि क्योंकि । एकेन - इस अकेले एक । जीवेन जीव ने। असकृत्वनन्तकृत्वः - बार बार अनन्तबार । सर्वे सारे । पुला :
पुद्रलों को। अपि भी। आत्तोज्झिताः ग्रहण करके छोड़ा है।
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क्षेत्रसंसारे क्षेत्रसंसार में। बंभ्रमता भ्रमण करते हुए । जन्तुना जन्तु के द्वारा । बहुश:
बहुत बार । सर्वत्र - सर्वत्र । जगत् क्षेत्रे - जगत् क्षेत्र में अवगाहनानि अवगाहन किया है। जन्म-मरण किया है। हि - निश्चय से अक्षुण्णः - जन्तु के द्वारा बिना जन्म-मरण किया हुआ । देश: - देश (क्षेत्र) 1 नहीं । अस्ति - है ।
न
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• वसानेषु नरक की जघन्य आयु से लेकर ऊपर के अनेक बार । भवस्थिति: - भवस्थिति । भाविता
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कालसंसारे - कालसंसार में । परिभ्रमन् - परिभ्रमण करता हुआ यह जीव । निरवशेषासु सम्पूर्ण उत्सर्पणावसर्पण - समयावलिकासु - उत्सर्पिणी अवसर्पिणी काल के समय और आवलियों में। जन्मा है। च और मृतः मरा है। बहुश: - अनेक बार | जात:
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हि - निश्चय से । मिथ्यात्वसंश्रितेन - मिथ्यात्व संयुक्त जीव ने । नरकजघन्वायुष्याद्युपरिग्रैवेयका
ग्रैवेयक विमान तक की आयु को क्रम से। बहुश:प्राप्त की है।
नाना
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भावसंसारे - भावसंसार में । भ्रमता भ्रमण करते हुए जीव ने । भुवि पृथ्वी पर ( संसार में ) सर्वप्रकृतिस्थित्यनुभाग- प्रदेशबंधयोग्यानि सर्व प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश बंध के योग्य । स्थानानि - स्थानों का। अनुभूतानि अनुभव किया है।
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संसरण को संसार कहते हैं जिसका अर्थ परिवर्तन है। मिथ्यादर्शनादि विभाव के वश होकर यह विकारी आत्मा एक शरीर को छोड़ता है और दूसरे नवीन शरीर को ग्रहण करता है। पश्चात् उसको भी छोड़कर दूसरा नूतन शरीर ग्रहण करता है। इस प्रकार परिभ्रमण में इस जीव ने अनन्तानन्त शरीर छोड़े हैं और ग्रहण किये हैं । इस शरीर एवं रागद्वेष के कारण यह जीव संसार में परिभ्रमण कर रहा है और वचनातीत शारीरिक एवं मानसिक दुःखों का भोग कर रहा है।
अनादि काल से जन्म मरण करते हुए इस जीव ने एक एक करके लोकस्थ सर्वपुद्गल परमाणुओं को, तीन सौ तैंतालीस राजू प्रमाण सर्व आकाश प्रदेशों को, काल के सर्व समयों को, सर्व प्रकार के कषाय भावों को और नरकादि सर्व भवों को अनन्तानन्त बार ग्रहण करके छोड़ा है। इस प्रकार द्रव्य, क्षेत्र, काल, भव और भाव के परिवर्तन से संसार भी पंच प्रकार का है।
विशेषार्थ - द्रव्य परिवर्तन दो प्रकार का है द्रव्यकर्म परिवर्तन और नोकर्मद्रव्य परिवर्तन । यह पुद्गल ( नोकर्म) परिवर्तनकाल तीन प्रकार का होता है: अगृहीतग्रहण काल, गृहीत ग्रहण काल