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________________ आराधनासमुच्चयम् ०२११ रूप (शारीरिक सौन्दर्य), कान्ति, तेज, यौवन, सौभाग्य, आरोग्यावस्था, विभ्रम, विलास, लावण्य (स्त्री के रूप के अवलोकन की अभिलाषा से उत्पन्न हुआ मुखविकार हाव कहलाता है, चित्त का विकार 'भाव' कहलाता है। मुख का अथवा दोनों भौंहों का टेढ़ा करना विभ्रम है और नेत्रों के कटाक्ष को 'विलास' कहते हैं।) सभी बिजली के समान चंचल हैं, विनाशीक हैं। ___ आत्मा के साथ एकक्षेत्रावगाही होकर रहने वाला यह शरीर भी इन्द्रधनुष के समान सहसा (अकस्मात्) नष्ट हो जाता है। अधिक क्या कहें, जितनी भी कर्मजन्य वस्तु दृष्टिगोचर हो रही हैं वे सर्व अनित्य हैं। अर्थात् जन्न क्षीर-नीर के समान जीव के साथ निबद्ध यह शरीर शीघ्र नष्ट हो जाता है, तो भोगोपभोग के कारणभूत दूसरे पदार्थ नित्य कैसे हो सकते हैं ? जिस प्रकार जल के बुद्बुद को, इन्द्रधनुष को, बिजली आदि वस्तुओं को देवादि भी स्थिर करने में समर्थ नहीं हैं, उसी प्रकार कर्मजनित जितनी वस्तुयें हैं, वे सब क्षणिक हैं, इत्यादि विचार करना अध्रुव या अनित्य भावना है। पुदल पिण्ड से रचित शरीर, इन्द्रिय विषय, उपभोग और परिभोग द्रव्य, ये सब शुद्ध निश्चयनय से आत्मा का स्वरूप नहीं हैं। यह आत्मा देव, असुर, मनुष्य और राजा आदि के विकल्पों से रहित है अर्थात् इसमें देवादिक भेद नहीं हैं, यह ज्ञानस्वरूप मात्र है और सदा स्थिर रहने वाला है। ऐसा विचार करने वाले पुरुष के स्त्री आदि का वियोग होने पर भी जूठे भोजन के समान उसमें ममत्व नहीं होने से चित्त विक्षिप्त नहीं होता। वह अविनाशी निज परमात्मा का ही भेद, अभेद रत्नत्रय की भावना द्वारा चिंतन करता है। जैसी अविनश्वर आत्मा को भाता है, वैसी ही अक्षय, अनन्त सुख स्वभाव वाली मुक्त आत्मा को प्राप्त कर लेता है। मोहवश अज्ञ प्राणी सांसारिक वस्तुओं में नित्यता का अनुभव करता है, पर वस्तुतः आत्मा के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग के सिवा इस संसार में कोई भी पदार्थ ध्रुव नहीं है, इस प्रकार चिन्तन करना अनित्यानुप्रेक्षा है। अशरण भावना का स्वरूप दुष्कर्मपाकसंभवजन्मजरामरणरोगशोकादि-1 संपाते शरणं नो जगत्त्रये विद्यते किञ्चित् ।।१४० ।। स्वर्गो दुर्ग वजं प्रहरणमैरावणो गजो भृत्याः। गीर्वाणा देवेश: शरणं नो किं परेषु वचः ॥१४१॥ १. हावो मुखविकारः स्याद्भावश्चित्तोत्थ उच्यते। विलासो नेत्रजो ज्ञेयो विभ्रमो भूयुगान्तयोः।।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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