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आराधनासमुच्चयम् .२००
कषाय बन्ध से व्युच्छिन्न होती हैं। बन्ध के कारणभूत प्रमाद का अभाव हो जाने से अस्थिर, अशुभ, असातावेदनीय, अयश:कीर्ति, अरति एवं शोक इन छह प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति प्रमत्तसंयतनामक छठे गुणस्थान के अन्तिम समय में होती है।
अप्रमत्तसंयतनामक सातवें गुणस्थान के अन्तिम समय में देवायुबंध की व्युच्छित्ति होती है।
जब संज्वलन कषायों का मंदतम उदय होता है, तब अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान में निम्नलिखित ३६ प्रकृतियों का बन्धविच्छेद हो जाता है- अपूर्वकरणगुणस्थान के प्रथम भाग में श्रेणी चढ़ते समय मृत्यु नहीं होती तथा निद्रा और प्रचला इन दो प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है। छठे भाग में तीर्थंकर, निर्माण, प्रशस्तविहायोगति, पंचेन्द्रियजाति, तैजस-कार्मण-आहारक शरीर, आहारकअंगोपांग, समचतुरस्रसंस्थान, देवगति, देवगत्यानुपूर्वी, वैक्रियिक शरीर, वैक्रियिक-अंगोपांग, स्पर्श-रस-गन्ध-वर्ण, अगुरुलघु, अपघात, परघात, उच्छ्वास, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्यकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदय, इन तीस प्रकृतियों की तथा सप्तमभाग में हास्य, रति, भय एवं जुगुप्सा इन चार नोकषार्यों की बन्धव्युच्छित्ति होती है। अर्थात् कुल ३६ प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति आठवें अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में होती है। संज्वलन क्रोध, मान, माया, लोभ और पुरुषवेद इन पाँच प्रकृतियों की व्युच्छित्ति नौवें गुणस्थान में होती है।
सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के अन्तिम समय में ज्ञानावरण की पाँच, अन्तराय की पाँच, दर्शनावरण की चार यश:कीर्ति एवं उच्चगोत्र इन १६ प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति होती है।
११ वाँ उपशान्तमोह, १२ वाँ क्षीणमोह और १३ वाँ सयोगकेवली, इन तीनों गुणस्थानों में कषायों का अभाव रहता है और किसी भी कर्मप्रकृति की बंधन्युच्छित्ति नहीं होती। सातावेदनीय का बन्ध योग के कारण होता है और इस गुणस्थान के अन्तिम समय में साता कर्म की भी बन्ध-व्युच्छित्ति हो जाती है। इस प्रकार प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति दिखलाई गयी है और बाकी बची. २८ प्रकृतियों की बंधव्युच्छित्ति नहीं होती। वर्णादि २० प्रकृतियाँ मुख्यतया रूप, रस, स्पर्श और गन्ध इन चार प्रकृतियों में ही अन्तर्हित हो जाती हैं। इसलिए १६ प्रकृतियाँ कम हुईं। पाँच बन्धन, पाँच संघात इन दस प्रकृतियों का ५ शरीर के साथ बन्ध होने से १० प्रकृतियाँ इस प्रकार कम हो जाती हैं। सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति ये मिथ्यात्व के भेद होने से इनका स्वतंत्र रूप से बन्ध नहीं होता है। इसलिए इन २८ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति नहीं होती है।
अयोगकेवली नामक चौदहवें गुणस्थान में योग भी नहीं रहता। अत: किसी भी कर्मप्रकृति का बंध नहीं होता और अ, इ, उ, ऋ, लु इन पाँच लघ्वाक्षरों के उच्चारण मात्र काल में जीव को मोक्ष प्राप्त हो जाता है।
इस प्रकार जीव के मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय और योग जो कर्मबन्ध के पाँचों हेतु हैं उनका अभाव तथा पूर्व कर्मों की पूर्ण निर्जरा के द्वारा सभी कर्मों से पूर्ण छुटकारा (मुक्ति) होने को ही मोक्ष कहते हैं।