SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 210
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आराधनासमुच्चयम् - २०१ गुणस्थानों में उदयव्युच्छित्ति क्रम कर्मों के फलदान की अवस्था में आने को उदय कहते हैं। कर्मों का उदय आत्म-विशुद्धि में बाधक होता है। इसलिए जैसे-जैसे आत्मविशुद्धि की वृद्धि होती है, वैसे-वैसे कर्मों की फलदान शक्ति नष्ट हो जाती है। उसका नाम उदयव्युच्छित्ति है। गुणस्थानों में उदय-व्युच्छित्ति का क्रम इस प्रकार है मिथ्यात्व गुणस्थान में मिथ्यात्व, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, इन पाँच प्रकृतियों की उदय-व्युच्छित्ति होती है। सासादन गुणस्थान में अनन्तानुबंधी कषाय चार, एकेन्द्रिय, स्थावर, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय इन ९ प्रकृतियों की उदय-व्युच्छित्ति एवं मिश्रगुणस्थान में एक सम्यक् मिथ्यात्व प्रकृति की ही उदय-व्युच्छित्ति होती है। असंयत गुणस्थान में अप्रत्याख्यानावरण कषाय चार, वैक्रियिकशरीर, वैक्रियिकअंगोपांग, नरकगति, देवगति, नरकगत्यानुपूर्वी, देवगत्यानुपूर्वी, नरकायु, देवायु, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, दुर्भग, अनादेय और अयशकीर्ति ये १७ प्रकृतियाँ स्टा से सिम होती हैं। देशसंयत गुणस्थान में प्रत्याख्यान की चार कषाय, तिर्यञ्चायु, उद्योत, नीचगोत्र व तिर्यञ्चगति इन आठ प्रकृतियों की उदय-व्युच्छित्ति होती है। अप्रमत्तगुणस्थान में सम्यक्त्वमोहनीय, अर्धनाराच, कीलित व असंप्राप्तसपाटिकासंहनन, इन चार तथा अपूर्वकरणगुणस्थान में हास्य, रति, अरति, शोक, भय और जुगुप्सा इन छह कषाय रूप कर्मप्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति होती है। अनिवृत्तिकरणगुणस्थान के सवेद और अवेद ये दो भाग कहे गये हैं। सवेद भाग में तीनों वेदों की उदय-व्युच्छित्ति होती है और अवेद भाग में क्रम से संज्वलन क्रोध, मान और माया इन दोनों को मिलाकर छह प्रकृतियों की उदय-व्युच्छित्ति होती है तथा इसी में बादर लोभ की भी व्युच्छित्ति हो जाती है। दसवें गुणस्थान में एक सूक्ष्म लोभ की व्युच्छित्ति होती है। उपशान्तकषाय नामक ११वें गुणस्थान में वज्रनाराच और नाराचसंहनन इन दो प्रकृतियों की उदय व्युच्छित्ति होती है। जो साधक क्षपकश्रेणी पर आरूढ़ होकर कर्मों का क्षय करता हुआ क्षीणकषाय नामक १२वें गुणस्थान में पहुँचता है, तब उस गुणस्थान के अन्तिम समय से पूर्व वाले एक समय में निद्रा एवं प्रचला इन दो प्रकृतियों की और अन्तिम समय में मतिज्ञानावरण, श्रुतज्ञानावरण, अवधिज्ञानावरण, मनः पर्ययज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण, चक्षुर्दर्शनावरण, अचक्षुर्दर्शनावरण, अवधिदर्शनावरण, केवलदर्शनावरण, दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय इन १६ प्रकृतियों की उदयव्युच्छित्ति करके अरिहंत अवस्था को प्राप्त हो जाता है। सयोगकेवली नामक १३वें गुणस्थान में वेदनीय की साता व असाता इन दो प्रकृतियों में से कोई
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy