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आराधनासपुच्चयम् १९९
भाव का न होना प्रमाद है। चार विकथाएँ, चार कषाय, पंचेन्द्रियविषयों में आसक्ति, निद्रा एवं प्रणय प्रमाद के भेद पन्द्रह प्रकार के बताये गये हैं। इनके भेद-प्रभेद करने पर प्रमाद के कुल अस्सी या साढ़े तैंतीस हजार भेद होते हैं।
कषाय - जो क्रोधादिक कषायें जीव के सुख-दु:ख रूप अनेक प्रकार के धान्य उत्पन्न करने वाली कर्म रूपी खेत का कर्षण करती हैं और जा जीव को तिर्यंच, नरक, देव, मनुष्य इन चार गतियों में बाँधकर रखती हैं, उनकी मर्यादा के बाहर मोक्ष रूप पंचम गति को प्राप्त करने नहीं देतीं, उन्हें कषाय कहते हैं। कषाय के कुल २५ भेद हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ इन चारों में से प्रत्येक की अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान और संज्वलन ये चार अवस्थाएँ होती हैं। (४४४ = १६) और नौ नोकषाय - हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद।
योग - 'युज्यत इति योगः' जो सम्बन्ध अर्थात् संयोग को प्राप्त हो, उसको योग कहते हैं अथवा जीवप्रदेशों का जो संकोच-विकोच (विस्तार)रूप परिस्पन्दन होता है, वह योग कहलाता है। काय, वाक् और मन की क्रियाओं के कारण आत्मा में आने वाली कर्म-वर्गणाओं के निमित्त से होने वाला आत्मप्रदेशों का परिस्पन्दन भी 'योग' है।
जैसे-जैसे कर्मबन्ध के कारणों का अभाव होता है, वैसे-वैसे आध्यात्मिक दृष्टि से आत्मा का उत्तरोत्तर विकास होता जाता है, नये कर्मों का आम्रव अर्थात् आत्मप्रदेशों में नवीन कार्माण-वर्गणाओं का प्रवेश अवरुद्ध हो जाता है (संवर) और पुरातन कर्मों की निर्जरा होती चली जाती है। संवर का दूसरा नाम है- बन्ध-व्युच्छित्ति और निर्जरा का दूसरा नाम है- सत्त्व-व्युच्छित्ति । कर्मबन्ध के प्रथम कारण 'मिथ्यात्व' के नाश होते ही १६ प्रकृतियों की बन्ध व्युच्छित्ति हो जाती है।
मिथ्यात्व, हुण्डकसंस्थान, नपुंसकवेद, असम्प्राप्तसृपाटिकासंहनन, एकेन्द्रियजाति, स्थावर, आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, विकलत्रय, (द्रीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय) नरकगति, नरकगत्यानुपूर्वी और नरकायु नामक १६ प्रकृतियाँ केवल मिथ्यात्व के उदय के कारण ही बँधती हैं, अत: मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के अन्तिम समय में इनकी व्युच्छित्ति हो जाती है। अनन्तानुबंधी कषायों का अभाव सासादन गुणस्थान के अन्तिम समय में होता है। उससे निम्नलिखित २५ कर्मप्रकृतियों का संवर हो जाता है -
अनंतानुबन्धी कषाय-चतुष्क, स्त्यानगृद्धि, निद्रा-निद्रा, प्रचला-प्रचला, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, न्यग्रोधपरिमण्डल, स्वाति, कुब्जक और वामन संस्थान, वज्रनाराच, नाराच, अर्धनाराच और कीलितसंहनन, अप्रशस्तविहायोगति, स्त्रीवेद, नीचगोत्र, तिर्यञ्चगति, तिर्यञ्चगत्यानुपूर्वी, तिर्यञ्चायु और उद्योत ये २५ प्रकृतियाँ व्युच्छिन्न होती हैं। असंयत सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान के अन्तिम समय में निम्नलिखित १० प्रकृतियों की बंध-व्युच्छित्ति होती है
__चार अप्रत्याख्यान कषाय, वज्रवृषभनाराचसंहनन, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, मनुष्यगति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और मनुष्यायु । देशसंयतगुणस्थान के अंतिम समय में चारों प्रत्याख्यानावरण