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________________ गुणेषु - गुणस्थानों में । षोडशकपंचविंशतिदशकचतुष्षट्कस्य - सोलह, पच्चीस, देश, चार और छह की । एकषट्त्रिंशत् एक और छत्तीस की। पंचकषोडशकैकं पाँच, सोलह और एक की। बन्धापाया - बंध व्युच्छित्ति । उद्याः जाननी चाहिए। अत्र गुणस्थानों में क्रमशः । दशचतुरेकं दश, चार और एक सप्तदशाष्टपंचकचतुष्कषट् - षट्कं - सत्तरह, आठ, पाँच, चार, छह-छह । एकद्विषोडशत्रिंशत् एक, दो, सोलह और तीस । च और द्वादश बारह सा वह । उदयापाया: उदय व्युच्छित्ति जाननी चाहिए। - आराधनासमुच्चयम् १९६ - - - उन १४ गुणस्थानों में क्रमश: । सा वह । विपाका: • उदीरणा। दशचतुरेकं - दश, चार, एक 1 सप्तदशाष्टकाष्टकचतुष्कषट्षट्कं सत्तरह, आठ, आठ, चार, छह, दह। एकद्विषोडशैकोना एक, दो, गोल्ड, एक कम चालीस अर्थात् ३९ प्रकृति की जाननी चाहिए। - तु और इन्हीं गुणस्थानों में क्रमशः । सप्ताष्टषोडशेकैकं सात, आठ, सोलह, एक, एक । षट्का - छह । एकैकं - एक, एक । एकं एक । षोडशपंचाशीतिः - सोलह और पिच्यासी । दुरितानां पापों का, कर्मप्रकृतियों का । सत्त्वापायाः सत्ताव्युच्छित्ति होती है। इन बंध व्युच्छित्ति, उदय व्युच्छित्ति, उदीरणा व्युच्छित्ति और सत्ता व्युच्छित्ति का चिंतन अपायविचय धर्मध्यान है । अर्थ - स्थिरचित्त होकर ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के नाश करने का चिंतन करना नाना भेद वाला अपायविचय नामक धर्मध्यान है। - कर्म बंध, उदय, उदीरणा और सत्त्व के भेद से चार प्रकार का है तथा प्रकृति बंध, स्थिति बंध, अनुभाग बंध और प्रदेश बंध के भेद से चार प्रकार का है। कषाय सहित होने पर जीव जिन कर्म योग्य पुद्गल वर्गणाओं को ग्रहण करता है, उसे बन्ध कहते हैं। आत्मा के साथ कर्मों का यह बन्ध दूध-पानी के मिश्रण के समान एकमेक, अभिन्न वा एकक्षेत्रावगाही होता है। प्रश्न आत्मा के साथ कर्मों का बन्ध कैसे होता है, जबकि आत्मा अमूर्त, अरूपी है और कर्म पुद्गल रूपी द्रव्य है ? अरूपी के साथ रूपी का बन्ध किस प्रकार सम्भव है ? उत्तर - यद्यपि आत्मा अपने स्वरूप से अरूपी है तथापि अनादि काल से कर्मबद्ध होने के कारण मूर्त व रूपी भी है। आत्मा के अमूर्तत्व के विषय में अनेकान्त है। जैन सिद्धान्त ऐसा नहीं कहता कि आत्मा सभी अवस्थाओं में अमूर्तिक ही है। कर्मबन्ध रूप पर्याय की अपेक्षा, उससे युक्त होने के कारण कथंचित् मूर्त है और शुद्ध स्वरूप की अपेक्षा कथंचित् अमूर्त है। क्योंकि संसारी जीव मूर्त आठ कर्मों के द्वारा अनादिकालीन बन्धन से बद्ध है इसलिए वह अमूर्त नहीं हो सकता अथवा शरीर का दाह होने पर जीव में दाह की वेदना, शरीर के भेदे जाने और छेदे जाने पर तीव्र दुःखवेदना, इन्द्रियों के विषयों में आकर्षणविकर्षण और शरीर के गमनागमन में जीव का गमनागमन देखा जाता है। प्रत्याकार ( म्यान) और खण्डक
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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