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आराधनासमुच्चयम् १९५
को प्रमाण मानकर यह इसी प्रकार है क्योंकि जिनदेव अन्यथावादी नहीं होते हैं, इस प्रकार गहन पदार्थ के श्रद्धान द्वारा अर्थ का अवधारण करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है।
___ अथवा, स्वयं पदार्थों के रहस्य को जानता है और दूसरों के प्रति उसका प्रतिपादन करना चाहता है, इसलिए स्वसिद्धान्त के अविरोध द्वारा तत्त्व का, समर्थन करने के लिए उसके जो तर्क, नय और प्रमाण की योजना रूप निरंतर चिंतन होता है, वह सर्वज्ञ की आज्ञा को प्रकाशित करने वाला होने से आज्ञाविचय कहा जाता है।
छह द्रव्य हैं, पंचास्तिकाय हैं, इनके गुणों के परिवर्तन से होने वाली पर्यायों का चिंतन करना भी आज्ञाविचय है। क्योंकि इन्द्रियगोचर पदार्थों का, उनके गुणों और पर्यायों का विश्वास आगम के आधार पर ही होता है और उनके चिंतन का आधार भी आगम है इसलिए आज्ञाविचय धर्म ध्यान कहलाता है।
अपायविचय धर्म ध्यान का लक्षण ज्ञानावरणादीनामपायसंचिन्तनं स्थिरत्वेन । विद्यादपायविचयं ध्यानं नानाप्रभेदं तत् ।।१२३॥ अन्धादिभिर्विकल्पैश्चतुर्विधो दुरितसंकुलापायः । प्रकृतिस्थित्याद्यैरपि तत्रैकैकं चतुर्भेदम् ।।१२४ ।। षोडशकपञ्चविंशतिदशकचतुष्षट्कस्यैकषट्त्रिंशत् । पञ्चकषोडशकैकं बन्धापाया गुणेषूह्या: ॥१२५॥ सैकद्विषोडशत्रिंशद् द्वादश चात्रोदयापायाः। दशचतुरेकं सप्तदशाष्टपञ्चकचतुष्कषट्पट्कम् ।।१२६ ॥ दशचतुरेकं सप्तदशाष्टकाष्टकचतुष्कषट्पट्कम् । सैकद्विषोडशैकोना चत्वारिंशद् विपाका: ।।१२७ ॥ सप्ताष्टषोडशैकैकं षट्कैकैकमेकमेकैकम्।
षोडशपञ्चाशीतिः सत्त्वापायास्तु दुरितानाम् ॥१२८ ॥ अन्वयार्थ - स्थिरत्वेन - स्थिरचित्त होकर। ज्ञानावरणादीनां - ज्ञानावरणादि आठ कर्मों के। अपायसंचिंतनं - नाश का चिंतन करना। तत् - वह । नानाप्रभेदं - नाना भेद वाला। अपायविचयं - अपायविचय नामक। ध्यानं - धर्म ध्यान । विद्यात् - जानना चाहिए।
___ बन्धादिभिः - बन्ध आदि। विकल्पैः - विकल्प के द्वारा। दुरितसंकुलापाय: - पाप के समूह का अपाय | चतुर्विधः - चार प्रकार का है। तत्र - वहाँ पर (इनमें)। अपि - भी। एकैकं - एक एक। प्रकृतिस्थित्याधैः - प्रकृति, स्थिति आदि के द्वारा। चतुर्भेदं - चार भेद हैं।