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________________ आराधनासमुच्चयम् १९४ रागादि सारे दोषों से रहित होकर आत्मा का आत्मा में रत होना, लीन होना, धर्म कहलाता है। समता, मध्यस्थता, शुद्धभाव, वीतरागता, चारित्र, धर्म और स्वभाव की आराधना ये सब एकार्थवाची शब्द हैं। इस प्रकार पुरुष का स्वभाव धर्म होने से स्वभावी आत्मा को धर्म कहा जाता है। आत्मा की परिणति या क्रिया को धर्म कहते हैं। वह धार्मिक क्रिया, वह परिणति यद्यपि निश्चय रूप से आत्मरमण ही है वा शुद्धोपयोग रूप ही है, परन्तु व्यवहार नय से अनेक प्रकार की है। इसलिए धर्म का लक्षण भी अनेक प्रकार का हो जाता है, जैसे गृहस्थ की अपेक्षा आहारदान, पंचपरमेष्ठी की भक्ति आदि, गृहत्यागी साधुओं की अपेक्षा षड़ावश्यक आदि, शुभोपयोग रूप व्यवहार धर्म है क्योंकि सम्यग्दर्शन पूर्वक की गई इन धार्मिक क्रियाओं से, परम्परा से मोक्ष की प्राप्ति होती है तथा ये साक्षात् कर्मनिर्जरा की कारण हैं। धर्मक्रिया से परिणत आत्मा गृहस्थ और मुनिराज के भेद से दो प्रकार का है। अत: गृहस्थ धर्म और मुनिधर्म के भेद से धर्म दो प्रकार का है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र के भेद से धर्म तीन प्रकार का भी कहा है। पापकार्य की निवृत्ति और पुण्यकार्यों में प्रवृत्ति का मूल कारण सम्यग्ज्ञान है इसलिए जिनागम का अभ्यास धर्म है। उत्तम क्षमा, मार्दव, आर्जव, शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और ब्रह्मचर्य रूप दश धर्म के भेद से धर्म दश प्रकार का है। इन धर्मों से युक्त परिणति को धर्म्य और उस धर्म्य में एकाग्रता को धर्म्य ध्यान कहते हैं। वह धर्म्यध्यान आज्ञाविचय, अपायविचय, विपाकविचय और संस्थानविचय के भेद से चार प्रकार का है। आज्ञाषिचय ध्यान का लक्षण आज्ञेत्यागमसंज्ञा तद्गदिताशेषवस्तुसंदोह-। गुणपर्यायविचिन्तनमाज्ञाविचयाह्वयं ध्यानम् ॥१२२ ॥ अन्वयार्थ - आज्ञा - आज्ञा। इति - इस प्रकार। आगमसंज्ञा - आगम का नाम है। तद्गदिताशेषवस्तुसंदोहगुणपर्याय-विचिन्तनं - उस आगम में कथित सम्पूर्ण वस्तु का समूह, उनके गुणपर्याय का चिन्तन। आज्ञाविचयालयं - आज्ञाविचय नामक । ध्यानं - धर्मध्यान है। अर्थ - आज्ञा का अर्थ आगम है। उस आगम में कथित सम्पूर्ण वस्तु (छहों द्रव्यों) का समूह, उनके गुण और पर्यायों का चिंतन करना, उनका श्रद्धान करना आज्ञाविचय धर्म ध्यान है। उपदेष्टा आचार्यों का अभाव होने से, स्वयं बुद्धिहीन होने से, ज्ञानावरण कर्म का तीव्र उदय होने से, पदार्थों के सूक्ष्म होने से तथा तत्त्व के समर्थन में हेतु तथा दृष्टान्त का अभाव होने से सर्वज्ञप्रणीत आगम १. समयसार की तात्पर्यवृत्ति, प्रवचनसार की तात्पर्यवृत्ति
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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