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________________ आराधनासमुच्चयम् । १९३ आर्त ध्यान भी पाँचवें गुणस्थान तक होता है, परन्तु निदान नामक आर्त ध्यान को छोड़कर तीन प्रकार के आर्त ध्यान छठे गुणस्थानवर्ती मुनिराज के भी होते हैं क्योंकि इष्ट शिष्यादि का वियोग, अनिष्ट शिष्यादि का प्रयोग और शारीरिक पीड़ा मम्बन्धी चिंता छठे गुणस्थान में हो सकती है। रौद्रध्यान अत्यन्त अशुभ है। कृष्ण, नील और कापोत इन तीन अशुभ लेश्याओं के बल से उत्पन्न होता है, अन्तर्मुहूर्त काल तक रहता है और आर्तध्यान के समान यह भी क्षायोपशमिक भाव है। ज्ञानार्णव ग्रन्थ में इसमें भाव लेश्या और कषाय की मुख्यता होने से इसको औदयिक भाव भी कहा है। यह रौद्र ध्यान आरंभ-परिग्रह के त्यागी भावलिंगी मुनिराज के कभी नहीं हो सकता। प्रश्न - यहाँ पर तपाराधना का प्रकरण है और तप से निर्जरा एवं संवर होते हैं, इन दोनों ध्यानों से संवर-निर्जरा नहीं होते, अपितु आस्रव और बंध ही होते हैं, इसलिए इनका कथन यहाँ पर नहीं होना चाहिए ? उत्तर - यह शंका उचित है। चारित्रसार में ध्यान के प्रकरण में इन दोनों ध्यानों का कथन नहीं किया गया है, परन्तु ध्यान सामान्य का कथन होने से यहाँ पर आर्त्त-रौद्र ध्यान का कथन किया है। इन ध्यानों में भी चित्त की एकाग्रता होती है, वह चित्त की एकाग्रता दुर्गति का कारण है, इस बात को समझाने के लिए इन ध्यानों का वर्णन करना आवश्यक है, अत: इन निषेधात्मक ध्यानों का यहाँ लक्षण लिखा है। धर्म ध्यान का चिह्न और लक्षण धर्मसहचारिपुरुषो धर्मस्तत्कर्मधर्म्यनाम स्यात् । ध्यानं चतुर्विधं तद्ध्याज्ञाविचयादिभेदेन ॥१२१॥ अन्वयार्थ - धर्मसहचारिपुरुषः - धर्म का सहचारी पुरुष। धर्मः - धर्म कहलाता है। तत्कर्मधर्म्यनाम - धर्म से परिणत पुरुष की जो कर्म - क्रिया है वह धर्म्यनाम से। स्यात् - कही जाती है। हि - निश्चय से । तत् - वह । ध्यानं - ध्यान । आज्ञाविचयादिभेदेन - आज्ञाविचयादि के भेद से । चतुर्विधं - चार प्रकार का है। अर्थ - धर्म से युक्त पुरुष भी धर्म कहलाता है अर्थात् धर्म आत्मा का गुण है, गुण-गुणी में कथंचित् भेद होते हुए भी प्रदेश की अपेक्षा भेद नहीं है इसलिए धर्मपरिणत आत्मा को भी धर्म कहा है। निज शुद्ध स्वभाव का नाम ही धर्म है। वह निज शुद्धात्मा का स्वभाव ही संसार में पड़े हुए जीवों की चतुर्गति के दुःखों से रक्षा करता है। "वत्थु सहावो धम्मो'' वस्तुस्वभाव धर्म है, वस्तु पुरुष (आत्मा) है और आत्मा का स्वभाव धर्म है। शुद्ध चैतन्य का प्रकाश करना इसका अर्थ है इसलिए धर्म से परिणत आत्मा ही धर्म है। १. परमात्मप्रकाश।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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