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आराधनासमुच्चयम् १९२
आर्त्त ध्यान और रौद्र ध्यान की जननी कृष्ण, नील और कापोत लेश्या है। यद्यपि ये दोनों ध्यान किसी पर्याय अपेक्षा शुभ लेश्या में भी होते हैं - जैसे स्वर्गादि के देवों में अशुभ लेश्या नहीं है फिर भी मिथ्यादृष्टि के आर्त, रौद्र ध्यान होते हैं।
यह रौद्र ध्यान पंचमगुणस्थान तक होता है, परन्तु इस सतत: रहती । जैसा ािष्टि का रौद्र ध्यान नरक गति का कारण है, वैसा नहीं है।
प्रश्न -- अविरत सम्यग्दृष्टि के तो रौद्र ध्यान हो सकता है, परन्तु पंचम गुणस्थानवर्ती के कैसे हो सकता है, वह तो पाँच पापों का एकदेशत्यागी होता है ?
उत्तर - यद्यपि पंचमगुणस्थानवर्ती पाँच अणुव्रत का धारी है, संकल्पी हिंसा का त्यागी है, परन्तु आरंभी, विरोधी और व्यापार सम्बन्धी हिंसा का त्यागी नहीं है, अत: आरंभ में रसोई आदि बनाकर, घर को स्वच्छादि करके आनंद मानना, वस्त्रों को स्वच्छ कर आनन्द मानना इत्यादि हिंसाजन्य कार्यों में आनन्द मानना हिंसानन्द रौद्र ध्यान है। इसी प्रकार किसी विरोधी शत्रु को दुःखी देखकर आनन्द मानना, उसको दु:खों में डालने का प्रयत्न करना, व्यापार में होने वाली हिंसा को देखकर भी पश्चाताप का अनुभव न कर आनन्द का अनुभव करना हिंसानन्द रौद्र ध्यान है।
अहिंसाणुव्रत में जो वध-बन्ध-च्छेद-अतिभारारोपण-अन्नपान-निरोधादि अतिचार लगते हैं, वे हिंसानन्द रौद्र ध्यान के कारण ही लगते हैं।
कषाय के आवेश में अथवा क्रोध, लोभ, भय और हास्य के कारण कभी असत्य बोलकर आनन्द का अनुभव करता है। मिथ्योपदेश, रहोभ्याख्यान, कूटलेखक्रिया, न्यासापहार और साकारमंत्रभेद ये सत्याणुव्रत के अतिचार भी रौद्र ध्यान के कारण लगते हैं। इन सब कार्यों में हर्षित होना मृषानन्द रौद्र ध्यान
देशव्रती होकर भी क्वचित् कदाचित् किसी को चोरी का प्रयोग बता देना, लोभ में आकर चोरी की वस्तुओं को खरीद लेना, राजकीय टैक्स की चोरी करना, करने वाले को अनुमति देना, उसको टैक्स बचाने का उपाय बताना, तराजू-तौलने के बाट आदि हीनाधिक रखना और अकृत्रिम में कृत्रिम वस्तु मिलाना आदि क्रिया करके, करा के तथा अनुमति देकर हर्षित होना चौर्यानन्द रौद्र ध्यान है।
__ पंचेन्द्रियों की विषयभोगसामग्री को प्राप्त कर हर्षित होना, पंचेन्द्रियों की मनोज्ञ वस्तुओं के लिए निरंतर लालायित रहना, आवश्यकता से अधिक सामग्री का अर्जन करना, इत्यादि भाव विषयसंरक्षणानंदरौद्रध्यान के लक्षण हैं तथा इस प्रकार के भाव देशविरति के हो सकते हैं। इसलिए देशविरति के भी रौद्रध्यान हो सकता है परन्तु व्रती एवं सम्यग्दृष्टि का रौद्र ध्यान दुर्गति का कारण नहीं है क्योंकि सम्यग्दर्शन एवं व्रत के माहात्म्य से ऐसा ध्यान मिथ्यादृष्टि के समान चिरकाल तक नहीं रहता है, कुछ क्षण के बाद ही इन निन्दनीय भावों के लिए वह पश्चाताप करता है, निन्दा-गर्दा एवं आलोचना करता है, प्रतिक्रमण करता है।