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आराधनासमुच्चयम् १८६
जीवों के पाप रूप आशय के वश से तथा मोह, मिथ्यात्व, कषाय और तत्त्वों के अयथार्थ रूप विभ्रम से उत्पन्न हुआ ध्यान अप्रशस्त कहलाता है। राग-द्वेष के वशीभूत होकर दूसरों के वध, बंधन, छेद, मारण, ताड़न आदि का चिन्तन करना अप्रशस्त ध्यान है। वा पंचेन्द्रिय विषयों में आसक्त होना, उनमें आनन्द का अनुभव करना ये सब अशुभ ध्यान वा अशुभोपयोग हैं!
जीव के पुण्य रूप आशय से तथा शुभ लेश्या के कारण जो आत्मगवेषणा की ओर प्रवृत्ति होती है, वह शुभ ध्यान है। शुद्धात्मा को प्राप्त करने के लिए जो निर्विकल्प समाधि में लीन होना है - जहाँ ध्यान, ध्याता, ध्येय का विकल्प नहीं रहता है - वह शुद्ध ध्यान है। इसी को संक्षेप में शुद्धोपयोग कहते हैं।
आगम भाषा में आर्स, रौद्र, धर्म और शुक्ल रूप चार प्रकार का ध्यान कहा है, अध्यात्म भाषा में तीन प्रकार का उपयोग कहा है - अशुभ, शुभ और शुद्ध ।
आर्त, रौद्र ध्यान अशुभ उपयोग हैं और धर्म ध्यान शुभोपयोग है तथा शुक्ल ध्यान शुद्धोपयोग रूप है।
आत्मज्ञानी आत्मा को जिन भावों से, जिस रूप से ध्याता है, उसके साथ वह उसी प्रकार से तन्मय हो जाता है, जैसे उपाधि के साथ स्फटिक मणि अर्थात् आत्मा शुभ, अशुभ वा शुद्ध रूप ध्यान करता है, वह उस समय उसी रूप से परिणमन करता है।
__ “इस प्रकार वीतराग चारित्र धर्म से परिणत आत्मा स्वयं धर्म होता है। जब वह जीव शुभ तथा अशुभ परिणाम रूप से परिणमन करता है तब स्वयं शुभ एवं अशुभ रूप होता है और जब शुद्ध रूप से परिणमन करता है तब स्वयं शुद्ध रूप हो जाता है।"
जिस समय ध्येय और ध्याता का एकीकरण हो जाता है, वही समरसी भाव है। यही एकीकरण समाधि रूप ध्यान है।
जो शुद्ध, शुभ एवं अशुभ परिणामों का कारण होता है, उसको ध्येय कहते हैं। शब्द, अर्थ और ज्ञान इस तरह तीन प्रकार का ध्येय कहलाता है।
आज्ञा, अपाय, विपाक और लोक संस्थान का आगम के अनुसार चित्त की एकाग्रता के साथ चिन्तन करना चाहिए। अध्यात्मवेत्ताओं के द्वारा नाम, स्थापना, द्रव्य और भावरूप चार प्रकार का ध्येय समस्त तथा व्यस्त दोनों रूप से ध्यान योग्य माना गया है अथवा द्रव्य और भाव के भेद से वह दो प्रकार का ही अवस्थित है।
वाच्य का जो वाचक शब्द वह नाम रूप ध्येय है और प्रतिमा स्थापना मानी गयी है।
९. प्रवचनसार मूल गाथा ८-९।