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आराधनासमुच्चयम् १८५
अप्रमत्त अवस्था की भावना भाने वाला, बुद्धि के पार को प्राप्त योगी, बुद्धिबलयुक्त, सूत्रार्थ अवलम्बी, धीर-वीर, समस्त परिषहों को सहने वाला, संसार से भयभीत, वैराग्य भावनाएँ भाने वाला, वैराग्य के कारण भोगोपभोग की सामग्री को अतृप्तिकर देखता हुआ सम्यग्ज्ञान की भावना से मिथ्याज्ञान रूपी गाढ़ अन्धकार को नष्ट करने वाला तथा विशुद्ध सम्यग्दर्शन द्वारा मिथ्या शल्य को दूर भगाने वाला मुनि ध्याता होता है। क्योंकि तप, व्रत और श्रुतज्ञान का धारक आत्मा ध्यान रूपी रथ की धुरी को धारण करने वाला होता है। मुमुक्षु हो, संसार से विरक्त हो, शान्तचित्त हो, मन को वश में करने वाला हो, शरीर व आसन जिसका स्थिर हो, जितेन्द्रिय हो, चित्त संवर युक्त हो (विषयों में विकल न हो), धीर हो अर्थात् उपसर्ग आने पर न डिग, ऐसे ध्याता की ही शास्त्रों में प्रशंसा की गयी है।
जिन-आज्ञा पर श्रद्धान करने वाला, साधु का गुणकीर्तन करने वाला, दान, श्रुत, शील, संयम में तत्पर, प्रसन्नचित्त, प्रेमी, शुभ योगी, शास्त्राभ्यासी, स्थिर चित्त, वैराग्य भावना को भाने वाला ये सब धर्मध्यानी के बाह्य व अन्तरंग चिह्न हैं। शरीर की नीरोगता, विषयलम्पटता व निष्ठुरता का अभाव, शुभगन्ध, मलमूत्र अल्प होना, इत्यादि भी उसके बाह्य चिह्न हैं।
यद्यपि यहाँ सामान्य ध्याता का लक्षण कहा है तथापि ये सर्व लक्षण धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान के ध्याता के कहे गये हैं। क्योंकि आर्त्त-रौद्र ध्यान के ध्याता इससे विपरीत होते हैं।
उत्तम संहनन, यह विशेषण मुख्यतया शुक्ल ध्यान के ध्याता का है क्योंकि शुक्ल ध्यान उसी के होता है और गौणतया धर्म ध्यान के ध्याता का भी विशेषण है।
जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट के भेद से धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान के तीन प्रकार के ध्याता होते हैं। उनमें उत्तम या वास्तविक धर्म या शुक्ल ध्यान के ध्याता मुनिराज ही होते हैं। जघन्य ध्याता चतुर्थ गुणस्थानवर्ती श्रावक होते हैं और मध्यम ध्याता पंचम गुणस्थान से लेकर अनेक प्रकार के होते हैं।
संक्षेप में ध्याता दो प्रकार के हैं - प्रारब्ध योगी और निष्पन्न योगी।
शुद्धात्म भावना को प्रारंभ करने वाले पुरुष सूक्ष्म विकल्प अवस्था में प्रारब्ध योगी कहलाते हैं और निर्विकल्प शुद्धात्मावस्था में निष्पन्न योगी कहे जाते हैं।
ध्यान का संक्षिप्त लक्षण ऊपर लिखा है, उसके भेद-प्रभेद आगे लिखेंगे। ध्यान दो प्रकार का है - प्रशस्त और अप्रशस्त । आर्त्त-ध्यान, रौद्र-ध्यान, धर्म-ध्यान और शुक्ल-ध्यान प्रशस्त-अप्रशस्त में गर्भित हो जाते हैं अर्थात् आर्त और रौद्र ध्यान अप्रशस्त हैं और धर्म एवं शुक्लध्यान प्रशस्त हैं।'
कितने ही संक्षेप रुचि वाले महर्षियों ने शुभ, अशुभ और शुद्ध के भेद से तीन प्रकार का ध्यान माना है क्योंकि जीव का आशय या परिणति शुभ, अशुभ और शुद्ध के भेद से तीन प्रकार की होती है।
१. अटुं च रूहसहियं दोण्णिवि झाणाणि अप्प सत्याणि ।
धम्म सुक्कं च दुवे पसत्थ झाणाणि णेयाणि ।। - मूलाराधना