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________________ आराधनासमुच्चयम् ० १८४ अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् उनके चिन्ता अथवा ध्यानान्तर होता है। आत्म-परगत बहुत वस्तुओं में संक्रमण (संचार) के होने पर उस ध्यान की परम्परा दीर्घ काल तक चल सकती है। यहाँ अन्तर्मुहूर्त के पश्चात् छद्मस्थ जीवों के जो ध्यानान्तर का निर्देश किया गया है, इससे ध्यान से भिन्न अन्य ध्यान को नहीं ग्रहण करना चाहिए, किन्तु भावना व अनुप्रेक्षा स्वरूप चित्त को ग्रहण करना चाहिए। वह ध्यानान्तर भी तभी होता है जबकि उसके पश्चात् ध्यान होने वाला हो । यही क्रम आगे भी समझना चाहिए। इस प्रकार से ध्यान का प्रवाह आत्मा, परमात्मा, बहुत वस्तुओं में संचरित होने से दीर्घ काल तक चल सकता है। आरंभ आदि की तथा परगत से बहिरंग द्रव्यादिक की विवक्षा रहती है। अपने विषय रूप प्रवृत्ति होने के कारण वह सत् कहा जाता है। क्योंकि अभाव भावान्तर स्वभाव होता है (तुच्छाभाव नहीं) अभाव वस्तु का धर्म है। यह बात सपक्ष सत्त्व और विपक्ष व्यावृति इत्यादि हेतु के अंग आदि के द्वारा सिद्ध होती है अथवा यह निरोध शब्द निरोधनं निरोधः इस प्रकार भावसाधन नहीं है, तो क्या है ? निरुध्यते निरोधः जो रोका जाता है, इस प्रकार कर्म साधन है। चिन्ता का जो निरोध वह चिन्तानिरोध है। आशय यह है कि निश्चल अग्रिशिखा के समान निश्चल रूप से अवभासमान ज्ञान ही ध्यान है। अन्य ध्येयों से शून्य होता हुआ भी स्वसंवेदन की अपेक्षा शून्य नहीं है। एक विषय में चित्त की वृत्ति को रोकना या चिन्ता के विक्षेप का त्याग करना वा चित्तनिरोध करना, ध्यान है। इस ध्यान के लक्षण में जो एकाग्रता का ग्रहण है, वह व्यग्रता की निवृत्ति के लिए है। क्योंकि ज्ञान व्यग्र होता है और ध्यान एकाग्र होता है। किसी एक विषय में निरन्तर रूप से ज्ञान का रहना ही ध्यान है। ध्यान के विषय में चार अधिकार हैं- ध्याता, ध्येय, ध्यान और ध्यान का फल । इसमें जो उत्तम संहनन शब्द का प्रयोग किया है, वह ध्याता का प्रतीक है। धवला की १३वीं पुस्तक में लिखा है, "उत्तम संहनन वाला, निसर्गबलशाली, शूर तथा चौदह या दश या नौ पूर्व का धारण करने वाला उत्कृष्ट ध्याता होता है"। इसमें उत्तम संहनन, चौदह पूर्व का ज्ञाता आदि ध्याता के विशेषण दिये हैं - वह उत्सर्ग मार्ग है। अपवाद व्याख्यान से तो पाँच समिति और तीन गुप्ति के पालन का प्रतिपादन करने वाले सारभूत श्रुतज्ञान से भी ध्यान होता है। यदि ध्यान करने वाला मुनि चौदह पूर्व का, या दश पूर्व का, या नौ पूर्व का जानने वाला हो तो वह ध्याता सम्पूर्ण लक्षणों से युक्त कहलाता है। इसके सिवाय अल्पश्रुत ज्ञानी, अतिशय बुद्धिमान् और श्रेणी के पहले-पहले धर्मध्यान धारण करने वाला उत्कृष्ट मुनि भी उत्तम ध्याता कहलाता है। आर्त- रौद्र ध्यानों से दूर, अशुभ लेश्याओं से रहित, लेश्याओं की विशुद्धता से अवलम्बित,
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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