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आराधनासमुच्चयम् १८३
___अन्वयार्थ - उत्तमसंहननस्य - उत्तम संहनन वाले के। एकाग्रज चिन्तानिरोधनं - एकाग्र से उत्पन्न चिंतानिरोध। ध्यानं - ध्यान होता है। अन्तर्मुहूर्तकालं - अन्तर्मुहूर्त काल है। च - और वह ध्यान। आदिचतुःप्रकारयुतं - आर्त्तादि के भेद से चार प्रकार से युक्त है।
अर्थ - इस श्लाक मे 'उत्तमसंहनन' यह ध्याता का लक्षण है क्योंकि उत्तम संहनन के बिना ध्यान में स्थिरता नहीं आ सकती। एकाग्रचिंता - निरोध, यह ध्यान का लक्षण है, अर्थात् एक वस्तु में चिन्ता का अवस्थान होना छद्मस्थों का ध्यान है और केवली भगवान के योगनिरोध ही है।
'अन्तर्मुहर्त्तात्' इस शब्द से काल की अवधि की गयी है, अन्तर्मुहुर्त से अधिक काल तक एकाग्रचिन्ता का स्थिर रहना दुर्धर है। एक दिन, वर्ष आदि तक जो ध्यान की बात सुनी जाती है, वह युक्तियुक्त नहीं है क्योंकि इतने काल तक एकाग्र होने से इन्द्रियों का उपघात हो जाता है। आदिनाथ, बाहुबली आदि के एक वर्ष तक का जो ध्यान कहा जाता है, वह ध्यान नहीं ध्यान की चिन्ता या भावना है।
एकाग्रता को प्राप्त जो मन है, उसका नाम ध्यान है। इसके विपरीत जो चंचल (अस्थिर) चित्त है उसे सामान्य से भावना, अनुप्रेक्षा अथवा चिन्ता कहा जाता है। इस तरह वह तीन प्रकार का है।
यद्यपि सामान्य से भावना, अनुप्रेक्षा और चिन्ता में भेद नहीं है, पर विशेष रूप में वे तीनों भिन्न भी हैं - भावना से ध्यानाभ्यास की क्रिया अभिप्रेत है। अनु अर्थात् पश्चाद्भाव में जो प्रेक्षण है उसका नाम अनुप्रेक्षा है, अभिप्राय उसका यह है कि स्मृतिरूप ध्यान से भ्रष्ट होने पर जीव के चित्त की जो चेष्टा होती है, उसे अनुप्रेक्षा समझना चाहिए। उक्त भावना और अनुप्रेक्षा इन दोनों से रहित जो मन की प्रवृत्ति होती है, उसे चिन्ता कहते हैं।
अन्तर्मुहूर्त काल तक जो एक वस्तु में चित्त का अवस्थान है, वह छद्मस्थों का ध्यान है तथा योगों का जो निरोध है - उनका जो विनाश है, वह जिनों (केवलियों) का ध्यान है।
एक वस्तु में जो स्थिरता पूर्वक चित्त का अवस्थान होता है, इसका नाम ध्यान है। इस प्रकार का ध्यान छद्मस्थों के होता है और वह अन्तर्मुहूर्त काल तक ही सम्भव है, इससे अधिक काल तक उसका रहना सम्भव नहीं है। "वसन्ति अस्मिन् गुण-पर्यायाः इति वस्तु" इस निरुक्ति के अनुसार जिसमें गुण
और पर्यायें रहती हैं, वह वस्तु (जीव आदि) कहलाती है। "छादयतीति छद्मः" अर्थात् जो आत्मा के ज्ञानादि गुणों को आच्छादित करता है, उसे छद्म कहा जाता है, जो ज्ञानावरणादि घातिकर्म स्वरूप है। इस प्रकार के छम में जो स्थित है, अर्थात् जिनके ज्ञानावरणादि चार घातिकर्म उदय में हैं, वे छद्मस्थ, केवली से भिन्न अल्पज्ञानी कहलाते हैं। एक वस्तु में चित्त की एकाग्रतारूप पूर्वोक्त ध्यान इन छद्मस्थ जीवों के ही होता है, केवलियों के वह सम्भव नहीं है, क्योंकि उनके चित्त का अभाव हो चुका है। केवली के जो क्रम से योगों का निरोध होता है - उनका अभाव होता है, यही उनका ध्यान है। इस प्रकार का वह ध्यान केवली के ही सम्भव है, छद्मस्थ के नहीं। औदारिक आदि शरीरों के सम्बन्ध से जो जीव का व्यापार होता है, उसका नाम योग है। वह मन, वचन और काय के भेद से तीन प्रकार का है।