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________________ आराधनासमुच्ययम् - १८२ इसलिए। तत् - इस तप को। परिवर्तनादिभेदात् - परिवर्तन आदि के भेद से। पंचविधं - पाँच प्रकार का कहा है। ___ अर्थ - भली प्रकार स्यावाद से युक्त जिनेन्द्रदेव द्वारा कथित आगम का अभ्यास करना, पठनपाठन करना स्वाध्याय नामक तप है। यह तप १२ प्रकार के तपों के पालन का मूल कारण है इसलिए यह मुख्य तप है क्योंकि स्वाध्याय के बिना स्व - पर का ज्ञान नहीं होता और स्व-पर के भेद के अभाव में १२ प्रकार के तपों का अनुष्ठान करना शक्य नहीं है। वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश के भेद से आचार्यों ने स्वाध्याय के पाँच भेद कहे हैं। __ अंग प्रविष्ट, अंग बाह्य वा प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग रूप आगम को पढ़ना वा दूसरों के लिए व्याख्यान करना वाचना नामक स्वाध्याय है । जाने हुए सूत्र में उत्पन्न शंका को दूर करने के लिए वा ज्ञात अथं को दृढ़ करने के लिए दूसरे ज्ञानी । से पूछना पृच्छना नामक स्वाध्याय है। ____ ज्ञात अर्थ का बारंबार चिंतन करना अनुप्रेक्षा नामक स्वाध्याय है। पठित शास्त्र का पुन:पुन: परिवर्तन, बार-बार पढ़ना आम्नाय नामक स्वाध्याय है। वेशठशलाका पुरुषों के चरित्र पढ़ना वा अन्य जनों के लिए वस्तु के स्वरूप का कथन करना धर्मोपदेश नामक स्वाध्याय है। ___ पाँचों प्रकार की स्वाध्याय श्रुत-भक्ति पढ़कर वा देववंदना रूप मंगलाचरण करके ही करनी चाहिए। जो साधु निरन्तर अर्हन्त भगवान् के ध्यान में लीन रहता है उसके “अर्हन् शं वो दिश्यात्" अर्हन्त भगवान तुम्हारा कल्याण करें तथा "सदास्तु वः शांति:" तुम्हारे सदा शांति बनी रहे। इत्यादि वचनों के उच्चारण को भी स्वाध्याय कहते हैं। क्योंकि पूर्वाचार्यों ने इन शब्दों के पढ़ने से भी कल्याण और परम्परा से मोक्ष की सिद्धि मानी है। स्तुति, स्तोत्र, पूजा आदि भी आम्नाय नाम की स्वाध्याय है। १२ प्रकार के तपों में स्वाध्याय के समान कोई दूसरा तप नहीं है। जिनेन्द्र देव के द्वारा कथित शास्त्रों का अध्ययन करने से सूर्य की किरणों के समान स्व-पर-प्रकाशक ज्ञान विशुद्ध होता है। चन्द्रमा के समान चारित्र निर्मल होता है और सम्यग्दर्शन भी २५ दोष रहित हो जाता है। स्वाध्याय तप व्याख्याता और श्रोता के असंख्यात गुणश्रेणी रूप से होने वाली कर्मनिर्जरा का कारण है। अंतरंग तप रूप ध्यान का प्रकरण उत्तमसंहननस्यैकाग्रजचिन्तानिरोधनं ध्यानम्। अन्तर्मुहूर्तकालं चार्तादिचतुः प्रकारयुतम् ।।११५॥
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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