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________________ आराधनासमुच्चयम् ९ १८७ पदस्थ ध्यान (नामरूप ध्येय अर्थात् अनेक प्रकार के मन्त्रों व स्वर व्यंजन आदि का ध्यान ) । द्रव्यरूप ध्येय गुणपर्यायवान् होता है। जिस प्रकार एक द्रव्य एक समय में उत्पाद व्यय ध्रौव्य रूप होता है, उसी प्रकार सर्वद्रव्य सदाकाल उत्पाद-व्यय- ध्रौव्य रूप होते रहते हैं। द्रव्य जो कि अनादि-निधन हैं, उनमें प्रतिक्षण स्व पर्यायें जल में कल्लोलों की तरह उपजती तथा विनसती रहती हैं। जो पूर्वक्रमानुसार विवर्तित हुआ है, होगा और हो रहा है वही सब यह (द्रव्य) है और यही सब उन स्वरूप है। द्रव्य में गुण सहवर्ती और पर्यायें क्रमवर्ती हैं। द्रव्य गुण पर्यायात्मक है और गुण पर्याय द्रव्यात्मक है। इस प्रकार यह द्रव्य नाम की वस्तु जो प्रतिक्षण स्थिति, उत्पत्ति और व्ययरूप है तथा अनादिनिधन है वह सब यथावस्थित रूप में ध्येय है। जो जीवादिक षट् द्रव्य चेतन अचेतन लक्षण से लक्षित है, अविरोध रूप से उस यथार्थ स्वरूप ही बुद्धिमान जनों द्वारा धर्मध्यान में ध्येय होते हैं। जिनेन्द्र भगवान द्वारा उपदिष्ट नौ पदार्थ ध्येय हैं। मैं अर्थात् जीव और मेरे अजीव अर्थात् आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा कर्मों का क्षय होने रूप मोक्ष इस प्रकार ये सात तत्त्व तथा पुण्य पाप मिला देने से नौ पदार्थ ध्यान करने योग्य हैं। यह लोक ध्यान के आलम्बनों से भरा हुआ है। ध्यान में मन लगाने वाला क्षपक मन से जिसजिस वस्तु को देखता है, वह वह वस्तु ध्यान का आलम्बन होती है। ध्यान के भेद-प्रभेदों का कथन इतरत्रिक संहननस्यास्थिरपरिणामसंयुतस्यापि । स्यादार्तादिकचिन्ता हेतुद्वितये च परिणामः ॥ ११६ ।। - अन्वयार्थ - अस्थिरपरिणामसंयुतस्य जो अस्थिर परिणामों से युक्त । इतरत्रिकसंहननस्यतीन हीन संहनन वाले जीव के । अपि भी। आर्त्तादिकचिन्ता आर्त्त आदि ध्यान । स्यात् होता है। और । हेतुद्वितये हेतु दो के होने पर। परिणाम: - आर्त रौद्र ध्यान के परिणाम होते हैं। च - १. भा. पा.टी. ॥३८॥ - अर्थ - आर्तादि ध्यान की चिन्ता हीन संहनन वालों के भी होती है, परन्तु उन दोनों ध्यानों में चित्त की स्थिरता नहीं रहती है। 'किसी एक वस्तु में' चित्त का स्थिर होना ध्यान है । परन्तु आर्त्त, रौद्र और सविकल्प धर्म ध्यान में मति चंचल रहती है उसको वास्तव में अशुभ व शुभ भावना कहना चाहिए।" परिणामों की स्थिरता, एकाग्रता को ध्यान कहते हैं। चित्त का एक पदार्थ से दूसरे पदार्थों में चलायमान होना या तो भावना है, या अनुप्रेक्षा है, या चिन्ता है । इसलिए श्लोक में आर्त्त ध्यान वाले को अस्थिरचित्त कहा है अतः आर्त्त, रौद्र और सविकल्प धर्म ध्यान
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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