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आराधनासमुच्चयम् * १७८
वस्त्र की स्वच्छता को नष्ट कर देता है। उसी प्रकार जिनका सम्बन्ध होने से आत्मा की स्वच्छता नष्ट होती है, जिनका सम्बन्ध छुड़ाना दुष्कर है, जो आत्मा को ज्ञानावरणादि कर्मों में स्थिर करती है, उनके स्थिति
और अनुभाग की वृद्धि करती है - मन की एकाग्रता को नष्ट करती है वे कषायें कहलाती हैं। उन कषार्यों को उत्पन्न नहीं होने देना कषाय प्रणिधान है।
सम्यक् प्रकार प्रवृत्ति करना, वा पाप से बचने के लिए मन की प्रशस्त एकाग्रता समिति कहलाती है। वह पाँच प्रकार की है। ईर्या समिति - जीवों की रक्षा करने के लिए सावधानी के साथ चार हाथ आगे की भूमि देखकर चलना। भाषा समिति - हित, मित, मधुर और सत्य वचन बोलना। एषणा समिति - निर्दोष अर्थात् उद्गमादि ४६ दोष टालकर आहार करना। आदाननिक्षेपण समिति - किसी भी वस्तु को सावधानी के साथ उठाना या रखना, जिससे मिली जीवजन्तु को पात नही जाय। प्रतिष्ठापन समिति - मलमूत्र आदि को ऐसे स्थान पर विसर्जित करना जिससे जीवोत्पत्ति न हो और न किसी जीव की विराधना हो। सम्यक् प्रकार से मन, वचन, काय का निग्रह करना, इनका गोपन करना वा बाह्य प्रवृत्तियों से मन को हटाकर आत्माभिमुखी करना गुप्ति है। इसके तीन भेद हैं - मनोगुप्ति - अप्रशस्त, अशुभ वा कुत्सित संकल्पों से मन को हटाना। वचन गुप्ति - असत्य, कर्कश, कठोर, कष्टजनक अथवा अहितकर वचनों का प्रयोग नहीं करना वा वचन बोलने में प्रवृत्ति नहीं करना। काय गुप्ति - शारीरिक क्रियाओं को रोकना अथवा असत् व्यापार सम्बन्धी शारीरिक क्रियाओं से निवृत्त होकर शुभ व्यापार में लगाना।
हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह इन पाँच पापों का मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना पंच महाव्रत है। इस प्रकार पंच महाव्रत, पञ्च समिति, तीन गुप्ति का धारण, कषायों और इन्द्रियों का निरोध रूप जो सम्यक्चारित्र है, उसका निर्दोष पालन करना, चारित्र में अतिचार नहीं लगाना तथा चारित्र के प्रति हार्दिक अनुराग होना चारित्र विनय है।
४. तप विनय - इच्छाओं का निरोध करना तप है। जैसे आकाश अनन्त है, उसी प्रकार इच्छाएँ भी अनन्त हैं, एक इच्छा की पूर्ति होने से पहले ही अनेक नवीन इच्छाओं का प्रादुर्भाव हो जाता है। मन और इन्द्रियों को संयत किए बिना न व्यक्ति के जीवन में तुष्टि आ सकती है और न जीवन निराकुल बन सकता है। अतएव इच्छानिरोध तप की आवश्यकता है। वह तप अंतरंग और बहिरंग के भेद से दो प्रकार का है। बहिरंग तप के अनशन आदि छह और अंतरंग तप के प्रायश्चित्त आदि छह भेद हैं।
अनशन - लेह्य, पेय, खाद्य और स्वाद्य इन चारों प्रकार के आहार का त्याग करना। अवमौदर्य - भूख से कम (खाना) भोजन करना। रस परित्याग - घृत, तैल, दूध, दही, मधुर और लवण इन रसों में से एक, दो या सर्व रसों का त्याग करना वा निर्विकृति भोजन करना। विविक्तशयनासन - स्वाध्याय की वृद्धि, मन की एकाग्रता तथा ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करने के लिए एकान्त स्थान में उठना, बैठना, शयन करना । वृत्ति परिसंख्यान - घर, मोहल्ला, दाता, भोजन, पात्र आदि का नियम करना अर्थात् 'इस घर में आहार होगा तो ग्रहण करूँगा अन्यथा नहीं' आदि का संकल्प करना । कायक्लेश - शीत, उष्ण,