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________________ आराधनासमुच्चयम् १७९ भूख, प्यास आदि के द्वारा शरीर को कष्ट देना। ये छह बहिरंग तप हैं क्योंकि ये बाह्य में दृष्टिगोचर होते हैं प्रायश्चित्त - अपने दोषों की शुद्धि करना। विनय - गुरुजनों के प्रति आदर भाव होना। वैयावृत्ति - आचार्य, उपाध्याय, ग्लानादि की सेवा-शुश्रूषा करना। स्वाध्याय - वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश रूप पाँच प्रकार के स्वाध्याय में अपने चित्त को स्थिर करना। व्युत्सर्ग - त्याग का नाम व्युत्सर्ग है। काम-क्रोध आदि अन्तरंग विकारों का त्याग करना अन्तरंग व्युत्सर्ग है और धनधान्यादि बाह्य उपाधियों का त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है। ध्यान - आर्त, रौद्र, धर्म और शुक्ल के भेद से ध्यान चार प्रकार का है। इसमें तप का प्रकरण होने से आर्त और रौद्र ध्यान में तो मोक्ष नहीं है। धर्म और शुक्ल ध्यान ही निर्जरा का कारण होने से तप रूप हैं। इस तप के प्रति आदर भाव तप विनय है अथवा तप ही संसार का नाशक है, ऐसा विचार कर तप की प्रशंसा करना ही तपोविनय है। ५. उपचार विनय - चारित्रधारी तपस्वियों के प्रति आदर भाव उपचार विनय है। वह परोक्ष और प्रत्यक्ष के भेद से दो प्रकार का है। कायिक, वाचनिक और मानसिक के भेद से परोक्ष और प्रत्यक्ष विनय के तीन भेद हैं। क्योंकि मन, वतन काय इन तीनों मे विरस किया जाता है! परोक्ष विनय - गुरु के परोक्ष में किया जाने वाला विनय। परोक्ष कायिक विनय - गुरु के समक्ष नहीं रहने पर भी उनको परोक्ष में नमस्कार करना, उनकी आज्ञा का पालन करना । परोक्ष वाचनिक विनय - गुरु के समक्ष नहीं रहने पर भी वचनों के द्वारा उनकी स्तुति करना । परोक्ष मानसिक विनय - मन के द्वारा परोक्ष में गुरु के हित का चिंतन करना। उनके प्रति आदर भाव युक्त मानसिक प्रवृत्ति करना। उनके गुणों की प्रशंसा आदि मानसिक प्रवृत्तियाँ। प्रत्यक्ष विनय - प्रत्यक्ष में गुरुओं का सत्कार करना। इसके प्रत्यक्ष कायिक विनय, प्रत्यक्ष वाचनिक विनय और प्रत्यक्ष मानसिक विनय ये तीन भेद हैं। प्रत्यक्ष कायिक विनय - गुरुजन, तपोऽधिक महर्षि आदि पूज्य पुरुषों के आने पर स्वयं बड़े आदर से उठकर खड़े होना, उनको मस्तिष्क झुकाकर, शरीर को नम्र कर, हाथ जोड़कर आदरपूर्वक्र नमस्कार करना, उनके समीप जाकर उनका स्वागत करना, उनके साथ चलते समय पीछे थोड़े अन्तर से हाथ-पैरों का चलते हुए शब्द न करते हुए उनके पीछे-पीछे चलना, चलते समय गुरु के शरीर का स्पर्श नहीं करते हुए गमन करना, अपने हाथ-पाँव, श्वासोच्छ्वास आदि के द्वारा उनकी विराधना न हो इस रीति से उनके पीछे बैठना, यदि गुरुजनों के सम्मुख बैठना हो तो उनके वाम पार्श्व भाग में उद्दण्डता रहित मस्तक झुकाकर बैठना, गुरु के सम्मुख आसन पर नहीं बैठना, शयन करते समय गुरु के बराबर नहीं सोना, गुरु के नाभि तक के भाग के प्रमाण जमीन छोड़कर शयन करना अर्थात् दो हाथ जमीन छोड़कर गुरु के चरणों की तरफ मस्तक करके गुरु को हाथ-पाँव का धक्का न लगे इस रीति से शयन करना। जब गुरुदेव के बैठने की इच्छा हो तो पृथ्वी का प्रमार्जन करके आसन बिछा देना। उनके उपकरणों (कमण्डलु आदि) को स्वच्छ करके देना, गुरु के शरीरानुकूल मर्दन करना आदि प्रत्यक्ष कायिक विनय है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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