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________________ आराधनासमुन्मा 262 उत्तर - यद्यपि शब्द पौद्गलिक हैं, ज्ञानस्वरूप नहीं हैं तथापि पदार्थ जो श्रुतज्ञान है वह शब्द की भित्ति पर खड़ा है। शब्द के द्वारा ही हम वस्तु को जान सकते हैं, शब्द ज्ञानोत्पत्ति का साधन हैं, अत: शब्दों को ज्ञान कह देते हैं और व्यञ्जनों को शुद्ध पढ़ना ज्ञानविनय कहलाता है। अक्षरहीन वा अशुद्ध पढ़ने से अर्थ का अनर्थ हो जाता है। अर्थ शुद्धि - शब्द के वाच्य को अर्थ कहते हैं जैसे - 'मानव' यह शब्द है। इसका अर्थ वाच्य है आदमी। अत: शब्दों के उच्चारण के अनन्तर मन में जो अभिप्राय उत्पन्न होता है उसे अर्थ कहते हैं। गणधरादि रचित सूत्रों के अर्थ का यथार्थ रूप से विवेचन करना, उनकी आगमानुकूल व्याख्या करना अर्थशुद्धि है। केवल सूत्रों का विवेचन मात्र नहीं क्योंकि केवल विवेचन से विपरीत अर्थ भी हो सकता है, जैसे 'सैन्धवमानय' इस शब्द का विवेचन है : सैन्धव लाओ, घोड़ा लाओ यह भी अर्थ हो सकता है और नमक लाओ, सैन्धव देश की कोई वस्तु लाओ, यह भी अर्थ हो सकता है अत: शब्दों का प्रकरणवश निर्दोष अर्थ करना ही अर्थशुद्धि है, अन्यथा अर्थ का अनर्थ हो जाता है, जैसे - क्षीरकदम्ब के पुत्र पर्वत ने अर्थ शुद्ध न पढ़कर विपरीत अर्थ करके हिंसा का प्रचार किया तथा संसार में हिंसामय धर्म की प्रवृत्ति की और मरकर नरक में गया । एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं, उनका युक्ति और आगमानुसार शुद्ध अर्थ करना अर्थशुद्धि है। उभयशुद्धि - व्यंजन की शुद्धि और उसके वाच्य अभिप्राय की शुद्धि को उभयशुद्धि कहते हैं। जैसे कोई पुरुष सूत्र का अर्थ तो नेक कहता है, परन्तु सूत्र उच्चारण ठीक नहीं करता। दीर्घ के स्थान में ह्रस्व का और ह्रस्व के स्थान में दीर्घ का तथा संयुक्त अक्षरों का असंयुक्त और असंयुक्त अक्षरों का संयुक्त उच्चारण करता है। इसलिए व्यंजन शुद्धि कही गई है। कोई पुरुष शब्दों का शुद्ध उच्चारण तो करता है परन्तु अर्थ की प्ररूपणा विपरीत करता है इसलिए अर्थशुद्धि का उल्लेख किया है। तीसरा मानव सूत्र का उच्चारण भी अशुद्ध करता है और उसका अर्थ भी अंटसंट बकता है। इन दोनों दोषों को दूर करने के लिए उभय शुद्धि का निरूपण किया है। इस प्रकार आठ प्रकार की शुद्धिपूर्वक शास्त्रों का पठन-पाठन करना ज्ञान विनय है। २. दर्शन विनय : सम्यग्दर्शन के नि:शंकित आदि आठ अंग हैं और शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्यदृष्टिस्तुति एवं प्रशंसा ये पाँच अतिचार (दोष) हैं। आठ गुणों एवं पाँच दोषों से रहित सम्यग्दर्शन को धारण करना तथा अर्हद्भक्ति, पूजा आदि के परिणाम दर्शन विनय है। ३. चारित्र विनय - पाँच महाव्रतों को धारण करना, पाँच समिति का पालन, पंचेन्द्रिय का रोध और मन, वचन, काय को वश में करना यह चारित्र है। स्पर्शन आदि इन्द्रियों के मनोज्ञ एवं अमनोज्ञ विषय हैं इनमें राग-द्वेष नहीं करना, इन्द्रियों को अपने विषयों में प्रवृत्ति नहीं करने देना इन्द्रियरोध है। जो आत्मा को कसते हैं, दुःख देते हैं, उनको कषाय कहते हैं। जैसे वृक्षों की छाल से जो रस निकलता है उसको कषाय कहते हैं। चिक्कण होने से वस्त्र पर लगने के बाद वह वस्त्र से निकलता नहीं तथा
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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