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आराधनासमुच्चयम् १७६
१. ज्ञान विनय - काल, विनय, उपधान, बहुमान, अनिह्नव, व्यंजन, अर्थ और उभय के भेद से ज्ञान विनय के आठ भेद हैं।
शास्त्रों का अध्ययन संध्याकाल (सूर्योदय के दो घड़ी पूर्व, दो घड़ी पश्चात्, सूर्यास्त के दो घड़ी पूर्व -दो घड़ी पश्चात् तथा मध्याह्न काल की रात्रि और दिन के दो-दो घड़ी पूर्व पश्चात् ), अष्टाह्निका, अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व काल, दिशादाह, उल्कापात आदि वर्जनीय काल का परिहार कर शेष काल में स्वाध्याय, पठन-पाठन, व्याख्यान आदि करना काल विनय है। क्योंकि अकाल में स्वाध्याय करने से जिनेन्द्र भगवान की आज्ञा का तिरस्कार होता है अतः ज्ञानावरणीय कर्म का बंध होता है और काल शुद्धिपूर्वक पठन-पाठन करने से अशुभ कर्म नष्ट होते हैं।
विनय शुद्धि श्रुतज्ञान और श्रुतधर के गुणों की प्रशंसा करना, उनका संस्तवन करना, श्रुत भक्ति एवं आचार्य भक्ति पढ़कर स्वाध्याय प्रारम्भ करना विनय शुद्धि है । विनयपूर्वक शास्त्राभ्यास करने से विद्यायें सिद्ध होती हैं। शीघ्र ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।
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उपधान - विशेष नियम धारण करना, जब तक यह शास्त्र या यह अनुयोग, प्रकरण समाप्त नहीं होगा तब तक मैं एक उपवास एक पारणा करूँगा, दो उपवास एक पारणा करूँगा, नीरस भोजन करूँगा या अमुक वस्तु का त्याग करूंगा, इत्यादि रूप से संकल्प करना उपधान विनय है। यह उपधान ज्ञानावरणीय कर्म का नाशक तथा श्रुतज्ञान का उत्पादक है।
बहुमान विनय - पवित्रता से हाथ जोड़कर चौकी आदि पर शास्त्र को स्थापित कर मन की एकाग्रता से अर्थ की अवधारणा करते हुए शास्त्राभ्यास करना बहुमान है। आत्मपरिणामों की विशुद्धि व कषायों के मन्द होने से ही देव, शास्त्र एवं गुरुजनों के प्रति बहुमान आता है और परिणामविशुद्धि, कर्मक्षय में निमित्त कारण है तथा शास्त्रों (जिनवचनों) का बहुमान करना, जिन भगवान का बहुमान करना है, क्योंकि जिनदेव और जिनवाणी में कोई अन्तर नहीं है। जिनदेव, जिनवचन एवं निर्ग्रन्थ गुरु के प्रति बहुमान होने से कर्मों की असंख्यात गुणी निर्जरा होती है और कर्मों की निर्जरा से ज्ञान की प्राप्ति होती है। बहुमान विनय ज्ञान प्राप्त होने का कारण हैं अर्थात् शास्त्र का बहुमान करने वाले को शीघ्र ही ज्ञान की प्राप्ति होती है।
अनिव - अपलाप करना, अन्यथा प्रवृत्ति करना, असलियत को छिपाना निह्नव है। अतः जिस
गुरु
के समीप अध्ययन किया है उसके नाम को छिपाकर दूसरे किसी विख्यात गुरु से मैंने अध्ययन किया है, ऐसा कहना निह्नव है। निह्नव का त्याग करना अनिह्नव है। निह्नव दोष से अशुभ कर्मों का आस्रव होता है और अनिह्नव से होती है सम्यग्ज्ञान की प्राप्ति ।
व्यञ्जन शुद्धि - क् आदि अक्षरों को व्यंजन कहते हैं। गणधरादि आचार्यों ने जो निर्दोष सूत्रों की रचना की है, उनको दोष रहित पढ़ना व्यञ्जन शुद्धि है ।
शंका
शब्द तो पौद्गलिक हैं, उनका शुद्ध उच्चारण ज्ञानविनय कैसे हो सकता है ?
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