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आराधनासमुच्चयम् १७५
मुनि महापापी है, अपने मत से बाह्य है, वंदना करने के अयोग्य है इसलिए इसको पारंचिक प्रायश्चित्त देकर संघ से निकालते हैं।" ऐसा कहकर अनुपस्थापन नामक प्रायश्चित्त देकर ऐसे क्षेत्र में भेज देते हैं जहाँ पर साधर्मी जनों का निवास नहीं है, इस प्रायश्चित्त की विधि अनुपस्थापन प्रायश्चित्त की विधि के समान है - उत्कृष्ट रूप से इसके भी उपवास की अवधि छह मास है। पारंचिक प्रायश्चित्त वाला साधु १२ वर्ष विधर्मियों के स्थान में पूर्ण करता है।
इस काल में यह परिहार नामक प्रायश्चित्त नहीं दिया जाता है। ये दोनों प्रकार के प्रायश्चित्त पंच महाव्रत के विराधक, राज्यविरुद्ध कार्यकारक मुनिराज को दिये जाते हैं जिनका उत्तम संहनन हो, जो ११ अंग और नी पूर्व के पाठी हों; साधारण अपराधी या साधारण संहनन वाले को नहीं दिये जाते।
श्रद्धा वा उपस्थापन - जो साधु सम्यग्दर्शन को छोड़कर मिथ्यामार्ग में प्रवेश कर जाता है उसको पुन: सन्मार्ग में स्थापित करना श्रद्धा नामक प्रायश्चित्त है अथवा महाव्रतादि से च्युत हो जाने पर पुन: दीक्षा देना उपस्थापन नामक प्रायश्चित्त है।
इस प्रकार इस तप के नौ वा दस भेद कहे हैं। इस ग्रन्थ में प्रायश्चित्त के दस भेद कहे हैं।
इस प्रायश्चित्त नामक तप से आत्मपरिणामों की विशुद्धि होती है, कर्मकालिमा का विध्वंस होता है, जिस प्रकार अग्नि के ताप से सुवर्ण शुद्ध होता है।
विनय नामक तप का लक्षणा घा भेद त्रिकरणशुद्ध्या नीचैर्वृत्तिर्विनयं सदाभिपूज्येषु ।
सम्यक्त्वाद्याश्रयणात् पञ्चविध: सोऽपि विज्ञेयः ॥११२।। अन्वयार्थ - सदा - निरंतर । अभिपूज्येषु - पूज्य पुरुष के प्रति। त्रिकरणशुद्धया - मन, वचन और काय की शुद्धि पूर्वक । नीचैर्वृत्तिः - नम्रता होना। विनयं - विनय नामक तप है। स; - वह विनयतप । अपि - भी। सम्यक्त्वाद्याश्रयणात् - सम्यग्दर्शन आदि के आश्रय से। पंचविधः - पाँचप्रकार का। विज्ञेयः - जानना चाहिए।॥३॥
अर्थ - जिस क्रिया से कर्म मल नष्ट होते हैं उसको विनय कहते हैं अथवा मोक्ष के साधन सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र के धारण करने वाले पुरुषों के प्रति नम्रता, रत्नत्रय एवं १२ प्रकार के तपों के अतिचारों का निराकरण, तपादि के विषय में परिणामों की विशुद्धि और इन्द्रियों का दमन करना आदि को विनय कहते हैं।
ज्ञान विनय, दर्शन विनय, चारित्र विनय, तप विनय और उपचार विनय के भेद से विनय पाँच प्रकार का है। तत्त्वार्थ सूत्र में दर्शन, ज्ञान, चारित्र और उपचार विनय के भेद से विनय चार प्रकार का कहा है। तप विनय, चारित्र विनय में समाविष्ट हो जाता है, क्योंकि तप चारित्र का ही अंग है। जब तप और चारित्र में भेद करते हैं तो विनय पाँच प्रकार का होता है। इस ग्रन्थ में विनय पाँच प्रकार का कहा है।