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________________ आराधनासमुच्चयम् - १७२ अनुमानित - हे प्रभो ! आप मेरे सामर्थ्य को जानते हैं, मेरी उदराग्नि दुर्बल है, मेरे अवयव कृश हैं, मैं उत्कृष्ट तप करने में समर्थ नहीं हूँ, मेरा शरीर रोगी है। यदि आप मेरे ऊपर इतना अनुग्रह करेंगे तो मैं अपने सम्पूर्ण अतिचारों का कथन करूंगा और आपकी कृपा से शुद्धियुक्त होकर मैं अपराधों से मुक्त होऊँगा, ऐसा अनुमान करके माया भाव से जो मुनि पश्चात् आलोचना करता है, वह अनुमानित नामक दोष है। दृष्ट - अपने अपराध दूसरों के द्वारा देखे जाने पर गुरु से कहना तथा जो नहीं देखे गये उन्हें न कहना यह माया है। दूसरों के द्वारा देखे गये और नहीं देखे गये सभी दोषों को गुरु के पास जाकर कह देना चाहिए। परन्तु जो ऐसा नहीं करता वह तीसरा दृष्ट नाम का दोष है। स्थूल - जिन-जिन व्रतों में अतिचार लगे हैं उन-उन व्रतों में स्थूल अतिचारों की तो आलोचना करने वाला परन्तु सूक्ष्म अतिचारों को छिपाने वाला मुनि जिनेन्द्र भगवान के पराङ्मुख हुआ है, वह स्थूल नाम का दोष है। सूक्ष्म - जो छोटे-छोटे दोष कहकर बड़े दोष छिपाता है वह मुनि भय, मद, कपट से भरा होता है। बड़े दोषों से आचार्य मुझे बड़ा प्रायश्चित्त देंगे, ऐसे भय से बड़े दोष नहीं कहता । कोई मुनि स्वभाव से कपटी होता है अत: वह बड़े दोष नहीं कहता ऐसा जिनवचन से पराङ्मुख सूक्ष्म रामक दोष है। छन्न - यदि किसी मुनि को मूलगुणों में अतिचार लगता है तो उसे कौनसा तप दिया जाता है ? अथवा किस उपाय से उसकी शुद्धि होती है ? ऐसा पूछना अर्थात् मैंने ऐसा अपराध किया है, उसका क्या प्रायश्चित्त है ? ऐसे न पूछकर प्रच्छन्न पूछता है। 'प्रच्छन्न पूछकर तदनंतर मैं उस प्रायश्चित्त का आचरण करूंगा।' ऐसा हेतु उसके मन में रहता है, ऐसा गुप्त रीति से पूछकर जो साधु अपनी शुद्धि कर लेता है वह छन्न दोष है। शब्दाकुलित - पाक्षिक, चातुर्मासिक और वार्षिक दोषों की आलोचना सब यतिसमुदाय मिलकर जब करते हैं उस समय अपने दोष स्वेच्छा से कहना शब्दाकुलित नाम का दोष है। बहुजन - आचार्य द्वारा दिये गये प्रायश्चित्त में अश्रद्धान करके यह सोचना कि दिया हुआ प्रायश्चित्त योग्य है या अयोग्य, ऐसा बहुत जनों से पूछकर आलोचना करना बहुजन नाम का दोष है। अव्यक्त - मैंने इनके पास मन, वचन, काय से और कृत, कारित, अनुमोदना से अपने सम्पूर्ण अपराधों की आलोचना की है ऐसा जो समझता है वह अव्यक्त नाम के दोष से युक्त है। तत्सेवी - पार्श्वस्थ मुनि, पार्श्वस्थ मुनि के पास जाकर उसको अपने दोष कहता है, 'यह मुनि भी सर्वव्रतों में मेरे समान है, यह मेरे स्वभाव को जानता है, इसका और मेरा आचरण समान है। अत: यह मुझे बड़ा प्रायश्चित्त न देगा', ऐसा विचार कर वह पार्श्वस्थ मुनि को अपने दोष बताता है। यह पार्श्वस्थ मुनि कहे हुए सम्पूर्ण अतिचारों के स्वरूप को जानता है', ऐसा समझकर व्रतभ्रष्टों से प्रायश्चित्त लेना यह आगमनिषिद्ध तत्सेवी नाम का दोष है।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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