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अंतरंग तप
अभ्यन्तरं च षोढा प्रायश्चित्तादि भेदतो भवति ।
दश पञ्चदश च पञ्च च चत्वारो द्वौ च तद्भेदाः ॥ ११० ॥
अन्वयार्थ - प्रायश्चित्तादिभेदतः - प्रायश्चित्तादि के भेद से। अभ्यन्तरं अभ्यन्तर तप । षोढा छह प्रकार का । भवति होता है । च और क्रमश: । दश पाँच दश - दस । च
दस | पंच उनके भेद हैं।
और पंच । च और । चत्वारः -
- चार । द्वौ - दो । तद्भेदाः
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आराधनासमुच्चयम् १७९
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अर्थ - अभ्यन्तर तप प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग के भेद से छह प्रकार का है। इनमें भी प्रायश्चित्त के दस, विनय के पाँच, वैयावृत्य के दस, स्वाध्याय के पाँच, ध्यान के चार और व्युत्सर्ग के दो भेद हैं।
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प्रायश्चित्त नामक तप का लक्षण और भेद
कृतदोषस्य निवृत्तिं प्रायश्चित्तं वदन्ति सकलविदः । आलोचनादयस्तद्भेदा दशसम्यगवगम्याः ।।१११ ।।
अन्वयार्थ - कृतदोषस्य किये हुए दोषों की । निवृत्तिं निवृत्ति को । सकलविदः - केवली भगवान । प्रायश्चित्तं - प्रायश्चित्त । वदन्ति - कहते हैं। आलोचनादय: - आलोचनादि । तद्भेदा : उस प्रायश्चित्त के भेद । दश: दस । सम्यक् - भली प्रकार अवगम्या: - जानने चाहिए।
अर्थ - मन, वचन, काय, कृत, कारित और अनुमोदना से किये हुए पापों का निराकरण करने के लिए जो दण्ड लिया जाता है उसको सर्वज्ञदेव ने प्रायश्चित्त कहा है। अथवा प्रायः शब्द साधु वा लोकवाची है और चित्त का नाम मन है । जिस क्रिया से साधुओं का चित्त निर्विकार हो जाता है अथवा व्रत में लगे हुए दोषों को प्राप्त हुआ यति निर्दोष हो जाता है वह प्रायश्चित्त कहलाता है वा दोषों का निराकरण करने के लिए जो अनुष्ठान किया जाता है उसको प्रायश्चित्त तप कहते हैं।
इस तप के आलोचना, प्रतिक्रमण, तदुभय, विवेक, व्युत्सर्ग, तप, छेद, परिहार और उपस्थापना ये नौ भेद हैं। मूलाचार की अपेक्षा इनमें 'श्रद्धागुण' मिलाकर दस भेद भी कहे हैं ।
गुरु के समक्ष दस दोषों को टालकर अपने प्रमाद का निवेदन करना आलोचना है। दस दोषों के नाम और लक्षण
आकंपित, अनुमानित, दृष्ट, स्थूल, सूक्ष्म, छन्न, शब्दाकुलित, बहुजन, अव्यक्त,
तत्सेवी |
आकंपित - स्वत: भिक्षालब्धि से युक्त होने से, आचार्य की प्रासुक और उद्गमादि दोषों से रहित, आहार आदि देकर वैयावृत्ति करना तथा पीछी- कमण्डलु आदि उपकरण देना, वंदना करना ऐसी क्रिया से
गुरु
के मन में दया उत्पन्न करके दोष कहता है, सो आकंपित दोष है।