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________________ आराधनासमुच्चयम् १७० अवग्रह - अनेक प्रकार की बाधाओं को जीतना अवग्रह है। थूकने, खाँसने की बाधा, छींक व जंभाई को रोकना, खाज होने पर न खुजाना, काँटा आदि लग जाने पर या ऊँची नीची धरती आ जाने पर खेद न मानना, यथासमय केशलोंच करना, रात्रि को भी न सोना, कभी स्नान न करना, कभी दाँतों को न मांजना इत्यादि अवग्रह के अनेक भेद हैं। योग - ग्रीष्म ऋतु में पर्वत के शिखर पर सूर्य के सम्मुख खड़े होना आतापन है। वर्षा ऋतु में वृक्ष के नीचे बैठना वृक्षमूल योग है। शीतकाल में चौराहे पर या नदी किनारे ध्यान लगाना शीतयोग है, इत्यादि अनेक प्रकार योग के होते हैं। इस प्रकार से संक्लेशित न होते हुए कायक्लेश नामक तप करना चाहिए। विविक्त शय्यासन तप का स्वरूप स्त्रीपश्वादिविवर्जितदेशे शुद्धे निवसनमध्ययन- । ध्यानादिविवृद्ध्यर्थं विविक्तशयनासनं षष्ठम् ॥ १०८ ॥ शुद्धे अन्वयार्थ - अध्ययनध्यानादि विवृद्ध्यर्थ अध्ययन और ध्यानादि की वृद्धि के लिए । • शुद्ध । स्त्री पश्वादि विवर्जित देशे स्त्री, पशु आदि से रहित क्षेत्र में । निवसनं रहना । षष्ठं विविक्तशय्यासनं विविक्तशय्यासन नामक छठा तप है। - - - - - - अर्थ - अध्ययन, पठन-पाठन, स्वाध्याय और ध्यान की वृद्धि के लिए स्त्री, पशु आदि से रहित शुद्ध पवित्र एकान्तस्थान में शयन आसन करना विविक्तशय्यासन नामक छठा तप है। असभ्य जनों के साथ सहवास वा वार्त्तालाप करने से मानसिक विकार उत्पन्न होता है, मन चंचल होता है अतः दोषों को दूर करने के लिए एकान्त स्थान में रहना चाहिए। तप कहने का हेतु बाह्यजनज्ञातत्वाद् बाह्येन्द्रियदर्पनाशकरणाच्च । मार्गप्रभावनाकरमेतद् बाह्यं तपो नाम ॥ १०९ ॥ - - अन्वयार्थ बाह्यजनज्ञातत्वात् बाह्य जनों के द्वारा ज्ञात होने से च और । बाह्येन्द्रियदर्पनाशकरणात् - बाह्य इन्द्रियों के दर्प का नाश करने वाला होने से। मार्गप्रभावनाकरं - मार्गप्रभावना करने वाला। एतत् यह बाह्यं - बाह्य तपः तप । नाम नाम ( कहलाता) है। - - - · - अर्थ- ये छहों प्रकार के तप मिथ्यादृष्टियों के द्वारा ज्ञात हैं अर्थात् अन्य मतावलम्बी मिथ्यादृष्टि भी उपवास आदि बाह्य तप करते हैं। इन बाह्य तपों से स्पर्शन आदि बाह्य इन्द्रियों का दमन होता है । इन्द्रियाँ स्वकीय काम करने में शिथिल हो जाती हैं तथा ये तप मार्गप्रभावना के कारण हैं, इनसे धर्म की प्रभावना होती है, अतः ये छहों बाह्य तप कहलाते हैं ।
SR No.090058
Book TitleAradhanasamucchayam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavichandramuni, Suparshvamati Mataji
PublisherDigambar Jain Madhyalok Shodh Sansthan
Publication Year
Total Pages376
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Religion
File Size10 MB
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